रविवार, 20 मई 2012

जलन


जलन






कैद में किसी के कभी रहती नहीं, 
बंद मुट्ठी से फिसलने का हुनर जानती हूँ.

सिर्फ साँसों - उसांसों से किसी की
मीलों का सफर करना जानती हूँ.

नमी किसी की रखती नहीं पास अपने
उसको दफ़न करना जानती हूँ.

घुलती नहीं साथ किसी के कभी
पर मिलने का सबब जानती हूँ.

बनता नहीं अकेले घर मेरा कभी
हिल-मिल के घर बनाना जानती हूँ.

रंग रूपहला, सुनहरा, स्याह अलग है मेरा.
रंगत की चमक बरकरार रखना जानती हूँ.

उड़ा ले जाये हवा  कहीं भी मुझे  
मैं अपना वजन रखना जानती हूँ.

चुप हूँ तो न जानो कुछ भी नहीं, 
कभी बबंडर बनना भी जानती हूँ.

सब मैं ही जानती हूँ कुछ तुम भी तो जानो
क्या जीने का सलीका मैं ही जानती हूँ?

भाड़ का चना बन के देखो तो जानो,
रेत हूँ मैं, रेत की जलन सिर्फ मैं जानती हूँ.

रविवार, 13 मई 2012

चश्में

चश्में 
सुबह सवेरे घर से बाहर निकलते ही
चढ़ जाते हैं सबकी आँखों पर
काले चश्में
जितनी ऑंखें उतने चश्में.
उतने ही विचार, सोच, नियत, बदनियत.
चश्में के पीछे
कहीं बाल सुलभ चंचल शरीर, ऑंखें
माँ से आंख मिलाने को डरती,
कहीं गली के  मोड़ तक
एक बहन का पीछा करती.
कहीं अपनी प्रेयसी के गालों पर 
टिक कर न हटने को मजबूर.
कभी बस एक पल 
किसी को देखने को व्याकुल.
पर लक्ष्य बस एक ही.
हम देखते हों और वो देखती न हों
सो आज सुबह होते ही
लाल, नारंगी, सुनहरी ओढ़नी ओढ़े
सूरज के अपने घर से निकली थी धूप.
घर से कुछ दूर आते ही
निकाल फेंकी थी उसने अपनी ओढ़नी.
फिर क्या था
चढ़ गए सबकी आँखों पर चश्में.
हर एक ने बस उसे ही ताका.
जितनी ऑंखें उतने चश्में
उतने ही विचार, सोच, नियत, बदनियत
पर लक्ष्य बस एक ही
हम देखते हों और वो देखती न हों.

रविवार, 6 मई 2012

मसीहा

किसी की मनःस्थिति,
सुकोमल भावनाएं,
मर्यादा, सीमा,
लक्ष्मण रेखा लांघना.
न सोचते हैं, न देखते हैं
ये शील हरने वाले
जानते और सोचते हैं तो बस
सीमा रेखा लांघना,
कुचलना, रौंदना और दर्द देना.
कल ही की तो बात है
जमाने के बाद
कई लेप लगाए थे
भरपूर श्रृंगार किया था.
मेरे घर से हो कर गुजरने वाली सड़क ने
नज़र न लग जाये किसी की.
सो आनन फानन में
ओढ़ ली डामर की काली चमकीली ओढ़नी
फिर क्या था ...
बिना रुके, अटके, बडबडाये,
शरू हो गयी वाहनों की दौड़ और होड़.
उस पल वो
सकुचाई, शर्माई, इतराई, लजाई
अपनी किस्मत पर
अगले ही दिन ....
डाल दिया जल निगम वालों ने अपना डेरा
तार तार कर दी
नई काली चमकदार डामर की ओढ़नी
छिन्न भिन्न कर डाले अंग
टुकड़ा टुकड़ा देह और बस एक टीला भर
धूल माटी में चेहरा छुपाए
सबकी नज़र बचाए
दुबक गयी बेचारी सडक
क्या हमारी ही तरह वो भी
प्रतीक्षा कर रही है
किसी मसीहे का.
कभी तो होगा कोई
जो बचा लेगा
उसकी ओढ़नी तार तार होने से.
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