रविवार, 26 फ़रवरी 2012

खबर की दुनिया


खबर की दुनिया


खबर की दुनिया में खबर बेचारी
अपनी ही खबर से बेखबर हो गयी है.
टी वी, टी आर पी कि बेदर्द दुनिया
खबर के लिए एक शज़र हो गयी है.
जयाप्रदा तू फिसल कर देख गिरी थी ऐसे,
तेरे लिए ये एक अनफोरगेटेबल मिरर हो गयी है.
सम्वेदनाओं को कैसे तोड़े मरोड़े,
इनके लिए ये ऑब्सेसिव किलर हो गई है.
जड़ों में घोलने को मठ्ठा,ये देखो
किसी के हांथों का स्टरर हो गई है
मर गये देश में स्ट्रगल कर कर के कितने
उनकी खबर भी स्ट्रगलर हो गई है.
न जाए जहाँ सुई, वहां डालने को सूजा
ये दुनिया नयी तत्पर हो गई है.
सबसे पहली खबर हमने ही है दिखाई,
ये बात ही उनका पिलर हो गई है.
किस्से कहानी और गानों की दुनिया,
टी आर पी का समर हो गई है.
विज्ञापनों की लंबी पारी के बाद,
खबर तू बस एक फिलर हो गई है.
खबर की दुनिया में खबर बेचारी,
अपनी ही खबर से बेखबर हो गयी है.

रविवार, 19 फ़रवरी 2012

बस...एक दिन


बस...एक दिन 



सात फेरों में, सात जन्मों के, वादे किये हैं
एक दिन में इतने जन्म बिताऊँगी कैसे? 

प्यार करने को एक उम्र भी कम है,
एक दिन में एक उम्र जी पाऊँगी कैसे?


पाने संवरने में जिसको बरसों लगे हैं, 
एक दिन में वो प्यार दिखाउंगी कैसे?

प्यार में किसी के खोया पाया बहुत है, 
एक दिन में, ये सब, जता पाऊँगी कैसे? 

प्यार में इस तरह फली फूली हूँ इतना, 
एक दिन में इतना सिमट पाऊँगी कैसे? 

प्यार में किसी के रूठना मान जाना, 
एक दिन में ये सब निबाहूँगी कैसे?

हर पल जो मेरी आँखों सांसों में बसा है, 
बस..एक दिन में उसे दिखा पाऊँगी कैसे?

किसी ने कहा था, हर  रोज चाहूँगा तुझको, 
बस..एक दिन के प्यार में मान जाउंगी कैसे? 

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

परीक्षण


परीक्षण

वो मिश्री से मीठे बोल तुम्हारे 
पहली बार सुने थे जब मैंने 
कितना सकुचाई थी लजाई थी मैं 
लाज में लपेट कर,
छुपा दिए थे कहीं वो बोल तुम्हारे 
आज इतने बरसों बाद .....
याद नहीं कितने ..
बीस पच्चीस ....
तुम्हारे छुवन की 

सिहरन का अहसास भूले 
वो बोल तुम्हारे 
समय कि चादर ओढ़े 
आज भी वहीँ पड़े हैं बेसुध 
क्या इस वसंतोत्सव प्रणय पर्व पर 
अपनी उँगलियों कि पोरों से सहलाकर
जीवंत कर दोगे उन बोलों को      
या इस बार भी 
मात्र कनखियों से देखोगे मुझे और मुस्कुरा दोगे 
यदि ये सच है तो
तो इस बार मैं 
उन बोलों कि तह तक जाना  चाहूंगी 
जानना चाहूंगी 
कि इतने बरसों 
क्षण क्षण हर क्षण 
क्या इतना क्षरण हो चुका है .... 

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

पल


पल      
चंद सहमे हुए से लम्हे
कुछ भीगे हुए से पल  
इन लरज़ती बुलंदियों पर
रहने लगे हैं हम.
क्या होगा हशर अपना
ये जाने बिगैर भी अब
पाने को मुकम्मिल मुकाम
आग पर चलने लगे हैं हम.
कब बुलंदियों से आकर
यूँ खाक़ में मिले हम
इस मुश्किल सफ़र में भी
खुश रहने लगे हैं हम.
क्या बुलंदियां हो
या खाक़ हो जमीं की
पाने को चंद खुशियाँ
समझने लगे हैं हम.
सहमे हुए हों लम्हें
या भीगे हुए हों पल
वक़्त की दहलीज़ पर 
अब पलने लगे हैं हम.
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