सोमवार, 31 दिसंबर 2012

नववर्षागमन


नववर्षागमन
आओ खाएं सौगंध, करें तैय्यारी.
तैय्यारी नववर्षागमन  की.
आन पड़ी है आवश्यकता
अब तो नव बीज वपन की
बदले आचारण अपना, छोड़ दें
आदत स्वस्तवन की
करें लहूलुहान आस
आज हर मलिन मन की.
बन जाएँ आंधी इस बार
दरिंदगी दमन की.
न रहे ये शब्द अब शब्द कोष में.
यही चाहत है आहत मन की
आओ खाएं सौगंध, करें तैय्यारी.
तैय्यारी नववर्षागमन की
आओ खाएं सौगंध, करें तैय्यारी.
तैय्यारी नववर्षागमन की.
करें जतन बदल दें दिशा
समाज के आचरण की
फले फूले समाज
न रहे जगह व्याभिचरण की.
दें सम्मान, करें रक्षा,
प्रकृति, धरती, माँ, बहन की
न मैं, न तू, बनें हम.
हो शुरुवात यही संचलन की
उतार दें हर देनदारी
पुराने हर दारुण क्षण की
आओ खाएं सौगंध, करें तैय्यारी
तैय्यारी नववर्षागमन की.

रविवार, 30 दिसंबर 2012

कब लगेंगे पेड़


कब लगेंगे पेड़
कब फूटेंगी कोपलें,
कब खेलूंगी
धूप छावं का खेल.
कब आँगन में किसी बच्चे की
बन के छाया
अठखेलियाँ करूंगी.
कब आएगा बादल.
कब बरसेगी बदली.
कब दिन भर अपने घर बैठ
चिंतन करूंगी.
आगे बढ़ने होड़ में,
ऐ दुष्ट प्राणी!
तूने क्या खोया, क्या पाया?
पैसा कमाने की होड़ में
भूल गया मुझ दुखयारी को.
थक गयी हूँ मैं.
मुझे विश्राम चाहिए.
मुझे कुछ पेड़ चाहिए.

रविवार, 23 दिसंबर 2012

सूर्य का संताप

सूर्य का संताप

मैंने बचपन से आज तक
हर रोज़
सूरज को सुबह औ शाम
गंगा नहाते देखा है
जैसे मानो उसने
भीष्म प्रतिज्ञा कर रखी हो
गंगा में डुबकी लगाये बिना
गंगा के चरण स्पर्श किये बिना
न तो मैं धरती में प्रवेश करूँगा
न ही धरती से बाहर आऊंगा.

इधर कुछ दिनों से देखती हूँ
सूरज कुछ अनमना सा है
हिम्मत जुटा पूंछ ही बैठी मैं
किन सोंचों में गुम रहते हो
बड़ा दयनीय सा चेहरा बना कर
बोला मैं सोचता हूँ
भगवान से प्रार्थना करूं
कि इस धरती पर पानी बरसे
रात दिन पानी बरसे
और कुछ नहीं तो केवल
सुबह शाम तो बरसे.

मेरे चेहरे पे मुस्कान आ गयी
आखिरकार इसे भी 
इन्सान का दुख समझ आ रहा है
फिर सोचा शायद स्वार्थी हो गया है
खुद इतनी लम्बी पारी
खेलते-खेलते थक गया है
कुछ दिन विश्राम करना चाहता है
मेरे चेहरे की कुटिल मुस्कान
देख कर वो बोला
तुम जो समझ रहे हो वो बात नहीं है
दरअसल मैं
इस गन्दी मैली कुचैली गंगा में
और स्नान नहीं कर सकता.

अवाक् रह गयी थी मैं
पूछा
अपनी माँ को गन्दा मैला कुचैला कहते
जबान न कट गयी तेरी.
जवाब मिला
अपनी माँ को इस हाल में पहुँचाने वाले
हर दिन उसका चीर हरण करने वाले
हर दिन उसकी मर्यादा को
ठेस पहुँचाने वाले
तुम इंसानों को ये सब करते
कभी हाँथ पाँव कटे क्या?

फिर मैं ही क्यों?
इसी से चाहता हूँ कि
सुबह शाम बरसात हो
तो कम से कम 
मैं नहाने से बच जाऊँगा
सीधा दोपहर में चमकूंगा
अपना सा मुंह ले कर
कोसती रही मैं
अपने आपके इन्सान को.

रविवार, 16 दिसंबर 2012

भविष्य


भविष्य 
हर दिन  सुबह सवेरे
बनाती हूँ जब चाय
देखती हूँ गर्म पानी के इशारे पे नाचती
चाय की पत्ती
उसका दिल जीतने का
हर संभव प्रयास करती
इतराती, इठलाती, बलखाती,
झूम झूम जाती
तब तक
जब तक बंद नहीं कर देती मैं आंच
जब तक खो नहीं जाता
उसका रूप, रंग, यौवन
सुडौल सुन्दर दानों की जगह
बेडौल थुल थुल काया
फिर बैठ जाता है
पत्तियों का झुण्ड
बर्तन की तली पर
थका, हारा, हताश,
फिर भी शांत.
दूर कर देती हूँ फिर मैं
पत्ती को उसी के पानी से.
सोचती हूँ कहीं
स्त्रीलिंग होने मात्र से
उसका भाग्य स्त्रियों से
जुड़ तो नहीं जाता
नहीं चाहती हूँ उसे
उसी की किस्मत पे छोड़ना
कूड़े के ढेर पर पड़े पड़े खत्म होना
उठाती हूँ बड़े जतन से उसे
ले जाती हूँ अपने सबसे प्यारे
और दुर्बल पौधे के पास
मिलाती हूँ उसकी
सख्त मिटटी में इसे
खिल उठती है वो मिटटी
भुर भुरी हो उठती है
आश्वस्त हूँ अब
जी उठेगा मेरा पौधा
जाते जाते कोई
जीवन दान जो दे गया है उसे.

रविवार, 9 दिसंबर 2012

मौन निमंत्रण

मौन निमंत्रण

ये मेरा है मौन निमंत्रण, आज तुम्हें अजमाने को,
जब मैं पहुंचा देर शाम को, खेतों औ खलिहानों को.

तेरी साँसे पास न आयीं, मेरा दिल बहलाने को,
सो अपनी साँसे भेज रहा हूँ, तुम्हे खींच कर लाने को.

तुम क्या जानो,मुझ पागल, प्रेमी,बेचारे,दीवाने को,
मेरी बाहें मचल रही हैं, तुम्हें पास ले आने को.

सोच रहा हूँ,आलिंगन कर, मजबूर करूं सकुचाने को,
सो अपनी साँसे भेज रहा हूँ, तुम्हे खींच कर लाने  को.

मेरी ऑंखें तरस रही हैं, इक दरस तुम्हारा पाने को,
सूखे अधरों पर प्यास खिली, क्या प्यासे ही रह जाने को.

क्यों पास नहीं तुम आ जाती, मधुशाला छलकाने को,
सो अपनी साँसे भेज रहा हूँ, तुम्हे खींच कर लाने को.

मैंने तो भेजा था तुमको, मेरा दिल ले जाने को,
मेरे दिल से दिल न मिले तो, मजबूर नहीं लौटने को.

याद न मेरी आएगी, अब तेरा दिल भरमाने को,
सो अपनी साँसे भेज रहा हूँ, तुम्हें भूल कर आने को.

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

जंगल और रिश्ते


जंगल और रिश्ते


कभी यहाँ जंगल थे
पेड़ों की बाँहें
एक दूसरे के गले लगतीं
कभी अपने पत्ते बजाकर
ख़ुशी का इज़हार करतीं
कभी मौन हो कर
दुःख संवेदना व्यक्त करतीं
न जाने कैसे लगी आग
सुलगते रहे रिश्ते
झुलसते रहे तन मन
अब न वो जंगल रहे
न वो रिश्ते
जंगल की विलुप्त होती
विशिष्ठ प्रजातियों की तरह
अब अति विशिष्ट 
और विशिष्ट रिश्ते भी
सामान्य और साधारण की
परिधि पर दम तोड़ रहे हैं
रोक लो
संभालो इन्हें
प्रेरणा स्रो़त बनो
इन्हें मजबूर करो
हरित क्रांति लाने को
रिश्तों की फसल लहलहाने को
क्योंकि अब रिश्तों को
मिठास से पहले
अहसास की ज़रूरत है
कि कुछ रिश्ते 
और कुछ रिश्तों के बीज
अभी जीवित हैं.

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

करवा चौथ


करवा चौथ 
 
इस करवा चौथ
नहीं महसूस हुई तुम्हारी कमी
एक रात पहले ही भर जो लिए थे
बहुत से टिमटिमाते तारे आँखों में
न भूख, न प्यास,
न व्यथा, न प्रतीक्षा.
महसूस करती रही
हर टिमटिमाते तारे में तुम्हें
दिन भर जगमगाती रही
उसी प्रकाश में मैं
तारों ने भी अच्छी दोस्ती
कर ली थी एक दूसरे से
जानते हो फिर क्या हुआ
शाम होते ही एक दूसरे का हाथ थाम
आपस में मिल गए सब
और मेरे लिए मात्र मेरे लिए
बना दिया एक बड़ा सा चाँद
फिर क्या था
भरपूर निहारा उसे, पूजा उसे, 
गले से लगाया उसे
अब आसमान में चाँद
निकले न निकले... 

रविवार, 28 अक्तूबर 2012

आशा


आशा

तिमिरपान कर लेती हूँ जब, चिमनी सा जी जाती हूँ 
आँखों में भर जाए समंदर तो, मछली सा पी आती हूँ 

सर सर सर सर चले पवन जब खुशियाँ मैं उड़ाती हूँ 
शब्दों के तोरण से कानों में घंटे घड़ियाल बजाती हूँ   
अंतस की सोई अगन को मध्धम मध्धम जलाती हूँ 
मूक श्लोक अंजुरी में भर कर नया संकल्प दोहराती हूँ   

तिमिरपान कर लेती हूँ जब, चिमनी सा जी जाती हूँ 
आँखों में भर जाए समंदर तो, मछली सा पी आती हूँ 

जीवन के इस हवन कुण्ड में अपने अरमान चढ़ाती हूँ
क्षत विक्षत आहत सी सांसें कहीं कैद कर आती हूँ 
भूली बिसरी बातों पर फिर नत मस्तक हो जाती हूँ 
आशा की पंगत में बैठे जो उनका दोना भर आती हूँ
   
तिमिरपान कर लेती हूँ जब, चिमनी सा जी जाती हूँ 
आँखों में भर जाए समंदर तो, मछली सा पी आती हूँ 

हिचकी या सिसकी हो कोई उसको थपकी दे आती हूँ 
शूलों की पदचापों पर फिर अपना ध्यान लगाती हूँ 
घावों में भर जाय नमक तो खारा जल भर आती हूँ 
पीड़ा में पीड़ा को भर कर पीड़ा कम कर आती हूँ   

तिमिरपान कर लेती हूँ जब, चिमनी सा जी जाती हूँ 
आँखों में भर जाए समंदर तो, मछली सा पी आती हूँ

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

उड़ान

उड़ान



मिलता है जब भी 
कोई संदेश सहसा 
सुखद या दुखद 
जाग उठती है उत्कंठा 
वहाँ सम्मिलित होने की 
सबसे मिलने की 
सुख दुःख साझा करने की 
तैयार होती हूँ अकेले ही 
जानती ये भी हूँ 
सब कुछ बदल गया होगा 
शहर, सड़कें, लोग
आरक्षण, ई आरक्षण, 
तत्काल आरक्षण,
दलालों के बीच भटकती, 
पिसती लौट आती हूँ   
खोलती हूँ विन्डोज़ 
हो जाती हूँ सवार माउस पर 
जकड़ती हूँ उँगलियों से कर्सर को 
खोलती हूँ गूगल मैप्स 
और फिर ...
मेरा गंतव्य शहर, 
मुहल्ला, गली मकान...
दस्तक देती हूँ कर्सर से
खुल जाती हैं मन की 
किवडियां, किवडियां,
गले मिलती हूँ सबसे 
चाची, मौसी, मामी, भाभी, भईया   
हँसती हूँ, मुस्कुराती हूँ, 
खिलखिलाती हूँ 
इस बीच...
आँखों की कोरों में दबे आँसू
टपकते हैं टप्प टप्प ...
कोई भांप न ले 
मेरे मन की व्यथा 
बंद करती हूँ विन्डोज़, 
खोलती हूँ खिड़की  
ओढ़ती हूँ चेहरे पर शालीनता
और बस ...

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

आत्महत्या


आत्महत्या 
व्यथित होती हूँ
जब पढ़ती हूँ
समाज में व्याप्त व्यभिचार
तनाव, बेचैनी, हताशा.
भाग दौड में जीवन हारते लोग
हर रोज कितनी ही आत्महत्याएं 
पुलिस, तहकीकात, शोक सभाएं.
मेरे घर में भी हुईं
कल कुछ आत्महत्याएं.
हैरान हूँ, शोकाकुल हूँ.
असमंजस में हूँ
बन जाती हूँ.
कभी पुलिस,
कभी फोरेंसिक एक्सपर्ट,
कभी फोटोग्राफर. 
देखती हूँ हर कोने से
उठाती हूँ खून के नमूने
सहेजती हूँ बिखरे अवशेषों को.
नहीं जानती कोई कारण इसका.
मेरी बेरुखी...अनदेखी...
या व्यस्तता.
पर हां ये सच है
मेरे दिल में रची बसी
मेरी करीबी कुछ किताबों ने
मेरी ही अलमारी की
तीसरी मंजिल से कूद कर
आत्म हत्या कर ली.

रविवार, 7 अक्तूबर 2012

इज़हार

इज़हार 

आंसुओं में आज अपने, 
फिर नहा कर

मैं अपने दर्द का, 
इज़हार करना चाहती हूँ

दूर ही रहना ऐ खुशिओं,
पास तुम आना नहीं

मैं अभी कुछ और पल, 
इंतजार करना चाहती हूँ

आज तक पल छिन मिले,
सब शूलों के दंश से

मैं शूल दंशों से,
अपना श्रंगार करना चाहती हूँ

पीर का हर एक मनका,
बांध के रखा था जो

मैं उसी माला की,
भेंट चढ़ना चाहती हूँ

बात जो हमने कही, 
वो कंटकों सी चुभ गयी

मैं अपनी कही हर बात, 
वापस लेना चाहती हूँ

रास्ता हमने चुना जो, 
आज मुश्किल हो गया

एक पल जो सुख मिले, 
तो मौत के ही पल मिले

मैं इसी अहसास को, 
जीवित रखना चाहती हूँ

आज तुमको साथ में,
अपने रुला कर

मैं आंसुओं की फिर, 
बरसात करना चाहती हूँ

आंसुओं में आज अपने, 
फिर नहा कर

मैं अपने दर्द का, 
इज़हार करना चाहती हूँ

रविवार, 30 सितंबर 2012

अंत


अंत
पहले से ही हताश
हवा के चेहरे पर
उड़ने लगी हैं हवाईयां.
जीवन के अंत का आभास
जो दिला रहे हैं उसके
अनवरत बढते नाखून
बचपन में सुना करती थी
चूहों के लगातार बढते दांत
उससे निजात पाने को.
अपना जीवन बचाने
और बढ़ाने को
सतत कुछ न कुछ
या सब कुछ
कुतरने की मज़बूरी.
पर ये हवा
चूहों की तरह
नहीं कुतरती कुछ भी
न ही खरोंचती है 
कुछ भी कहीं भी
अपने नाखूनों से
ये डालती है खराशें बस
पेड़, पौधों, टहनियों
और डालियों पर.
कभी मीलों चलने पर
मिल जाते हैं
इक्के दुक्के दरख्त.
जगती है खराश डालने
और जीने की कुछ आशा
अचानक पड़ जाता है 
उसका चेहरा पीला.
कहीं आगे निरा रेगिस्तान
तो नहीं देखा है उसने.

रविवार, 23 सितंबर 2012

मौत से बातें


मौत से बातें  

आज फिर मेरी मौत हो गयी.
अपनों से बिछुड़ने का ग़म क्या कम था
जो सारी दुनिया खफा हो गयी.
आज फिर मेरी मौत हो गयी
कब से पड़ा था मेरा जनाज़ा,
कोई कांधा देने  को   न था.
एक बची थी में अकेली
आज फिर मेरी मौत हो गयी.
अपना जनाज़ा अपने
कांधों पर ले के जो निकली
एक अजनबी की बददुआ लग गयी.
आज फिर मेरी मौत हो गयी
यूँ तिल तिल जीना,
यूँ तिल तिल मरना.
आज मौत इतनी बेखौफ हो गयी.
आज फिर मेरी मौत हो गयी.
यूँ चिंदा चिंदा जिंदगी
यूँ लम्हा लम्हा मौत
आज मौत जिंदगी से बड़ी हो गयी
आज मेरी आखिरी मौत हो गयी.

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

गतिशास्त्र


गतिशास्त्र

"जीवन चलने का नाम"
"चलते रहो सुबहो शाम"
"जीवन गति है"
"गति ही जीवन है"
जाने किसने,
कैसे
और क्यों कह दिया ये ?
क्यों नहीं देख पाते वो
इसके पीछे की गणित
और मेहनत.
तभी बात बेबात कहते हैं
"फ़ाइल और कागज़ चलते ही नहीं"
नहीं जानते हैं वो
गति में सापेक्षता होती हैं.
वस्तु के भार और
उस पर लगे बल की दिशा में जाने की
फाइल पर जितना भारी बण्डल
उतनी ही उसकी गति
जाने क्या सोचता होगा
गति के नियम बनाने वाला,
अपने और अपने नियम के बारे में.
आश्चर्य होता है
जब गति के नियमों की धज्जियाँ उड़ाता हुआ,
कोई आस्तित्वान हीन कागज़
किसी भारी बण्डल के प्रभाव में,
त्वरित गति से गंतव्य पर पहुँच
आस्तित्व में आ जाता है.
तब शायद गति के नियम बनाने वाला ही
आस्तित्वहीन हो जाता है.

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

संवेदनाएँ


पलकें जब आँखों पे झुकती हैं 
नींद कहीं खो जाती है।
आंसुओं के अनंत जुलुस में 
ध्वज थामें चलती जाती हूँ। 


पिछले कुछ समय से व्यस्तता के कारण अनियमित रही ३ सितम्बर २०१२ को मेरे पूजनीय ससुर जी श्री अरुण कुमार का  बीमारी के बाद देहावसान हो गया। उनकी तेरहवीं १४/0९/२०१२ को मेरे निवास स्थान बी १२, प्रथम तल, प्रीत विहार, नई दिल्ली पर है। कृपया यहाँ उपस्थित होकर उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें. 

रविवार, 2 सितंबर 2012

मुक्तक

मुक्तक


1.

एक बेबस सी औरत
जो खड़ी है ऐसे मंज़र पर
एक हाथ में कलम
दूसरे में दस्तरख्वान है
एक तरफ लज़ीज़ पकवान हैं
दूसरी तरफ दुःख की दास्तान है.

2.

लोग बन्दों को खुदा बनाते हैं
मैंने खुदा को बन्दा बनाने की
हिमाकत की है
वो जो बोलता नहीं
समय से पहले
अपनी गठरी खोलता नहीं
लोग कहते हैं
वही खुदा है
पर हर बन्दा जो हमको मिला
खुदा हो गया
खुदा की तरह न बोला, न मुस्कराया,
बस फना हो गया.

3.


आज हवा में कुछ हरारत सी है
कोई हया से पिघल गया होगा.
आज हवा में शरारत सी है
कोई शरीर दिल मचल गया होगा.
आज हवा में कुछ नमी सी है
कोई आंख भिगो गया होगा.
आज हवा में कुछ कमी सी है
कोई रुखसत हो गया होगा.

रविवार, 5 अगस्त 2012

वर्षा


वर्षा  

वर्षा के इस मौसम में, मेरा उर घट क्यों रीता है.
वर्षा के इस मौसम में, तो पौधा-पौधा जीता है.

दादुर के इस मौसम में, क्यों मन की कोयल गाती है.
उर के कोने- कोने में, क्यों कटु संगीत सुनाती है.

झींगुर के इस मौसम में, मेरी उर वीणा क्यों बजती है.
उर वीणा के क्षत-विक्षत तारों को जोड़ा करती है

वर्षा के इस मौसम में, मेरा उर घट क्यों रीता है.
वर्षा के इस मौसम में तो पौधा-पौधा जीता है.

माना वर्षा के बाद तो हर पत्ता-पत्ता रोता है,
अपने प्रियतम के जाने पर शोक मनाया करता है.

क्यों वर्षा के इस मौसम में मेरा उर मानव सोता  है,
वर्षा की ठंडी बूंदों से मन आह़त होता रहता है.

रविवार, 29 जुलाई 2012

बादल


बादल


जब आसमान पर बादल छाए
तुम याद हमें भी आयी हो.

काले बादल का जमघट
ज्यों केशावली लहराई हो.

बादल में बिजली की चम- चम
ज्यों तुम आज कहीं मुस्काई हो.

सर सर सर सर चले पवन
ज्यों चुनरी तुमने लहराई हो.

पानी में मिट्टी की खुशबू
ज्यों साँस तुम्हारी आयी हो.

खिड़की पर बूंदों की छम-छम
ज्यों झांझर तुमने झनकायी हो.

ठंडी  बूंदों की वोह सिहरन
ज्यों पास कहीं तुम आयी हो.

बारिश में वो इन्द्रधनुष
ज्यों ली तुमने अंगडाई हो.

पानी की अविरल जल धारा
ज्यों तुम आलिंगन कर आयी हो.

मेरी अश्रु धारा में 
ज्यों तुम आज नहा कर आयी हो.   

रविवार, 22 जुलाई 2012

चोर हूँ मैं


चोर हूँ मैं


पिछले कुछ सालों से बीमार हूँ
एक अजीब सी लत लगी है मुझे
चोरी की
जब भी कहीं भी किसी को देखती हूँ
मेरी बीमारी उकसाती है मुझे
मन पक्का करती हूँ
फिर भी मजबूर हो जाती हूँ
चुराने को
और फिर....
चुरा लेती हूँ..
अपनी ऑंखें सबसे
पिछले कुछ समय से जुटा पाई हूँ
कुछ साहस
मिलती हूँ सबसे
मिलाती हूँ ऑंखें
करती हूँ बातें
फिर भी जाने का नाम नहीं लेती
चोरी की ये आदत
हर रोज कहीं भी कैसे भी
कुछ भी कर के
चुराती हूँ, छुपाती हूँ,
चाती हूँ सबसे
सिर्फ अपने लिए
नहीं बनाती किसी को भी
अपना सहभागी यहाँ
नहीं बाँटती चोरी का ये माल
किसी के भी साथ
बैठती हूँ अपने साथ,
खाती हूँ अपने साथ,
समय बिताती हूँ अपने साथ
हाँ मैं एक चोर हूँ
चुराती हूँ हर रोज
थोड़ा थोड़ा समय
अपने अपने और
सिर्फ अपने लिए.

रविवार, 15 जुलाई 2012

बरसात


बरसात


कल मेरे शहर में
बड़ी मिन्नतों बाद बरसात हुई.
बदहाल सड़कों,
बीमार नालियों,
हांफते नालों,
में फिर एक बार
बात-मुलाकात हुई.
कुछ कम कुछ ज्यादा
बातें सबकों मान्य हुईं.
हर तरह के तैरते भ्रष्टाचार से
गलियां सड़कें गुलज़ार हुईं.
कल मेरे शहर में
बड़ी मिन्नतों बाद बरसात हुई.
 

रविवार, 8 जुलाई 2012

दर्द


दर्द 

मेरे आंगन में बरसों से पड़ी
खाली चारपाई पे कल
उनींदी सी पड़ी धूप को 
बाल सुखाते देखा.
थकी निढाल मलिन मुख...
मुझे पास देख खोल दी
क्लांत मन की पिटरिया,
बोली
आज हर कोई भाग रहा है
गगन चुंबी अट्टालिकाओ में रहने को
उसे अपना बनाने को
पहले होते थे
दूर तक फैले बड़े बड़े खेत खलिहान
दूर दूर फैले दो चार मकान
और तब मैं
रोज सूरज के साथ घर से निकलती
फैला देती अपना आंचल एक ही बार में
इस पार से उस पार तक
फिर सारा दिन बच्चों संग छुपन छुपाई
पेड़ पौधों पक्षियों संग आंख मिचोली,
थोडा ऊँघ भी लेती 
किसी दादी अम्मा की गोद में. 
शाम फिर अपना आंचल समेट
अपने प्रियतम संग लौट आती, 
कल फिर आने कि उंमग में. 
चाहती आज भी हूँ 
हर मन, घर, आंगन, खिड़की 
को रौशन करना 
इतनी सीढियाँ इतनी ऊँची इमारत 
चढ़ते चढ़ते ही बीत जाता है दिन
हर इंसान की ही तरह परेशान हूँ मैं भी.


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