शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

धूप-छाँव


धूप-छाँव  


धरती मैय्या की गोद में 
खेलते खेलते
धूप कब बड़ी हो गई
पता ही नहीं चला. 
वो तो एक दिन
एक मजबूत दरख्त से 
उसे लिपटते देखा 
फिर क्या था... 
प्यार के फूलों से लद गया वो पेड़
फिर फल, फिर नयी संतति 
असमंजस में थी कैसे हुआ ये सब 
नटखट हवा बोली 
अभी कुछ दिन पहले ही तो 
धूप ने इस दरख्त संग सात फेरे लिए हैं 
कन्या दान भी किया है
धरती मैय्या ने
और दहेज... में दिया है
अपनी जमा पूंजी से 
पानी, गृहस्थी चलाने को कुछ पोषकतत्व
और अखंड सौभाग्यवती होने का आशीष
सोचती हूँ.... 

रविवार, 18 दिसंबर 2011

बाल कवितायेँ


आज दो कवितायेँ बच्चों के लिए 
(१)
हँसना

हँसना और हँसाना सीखो 
हर पल तुम मुस्काना सीखो. 
कली कली से फूल फूल से 
खुशबू तुम महकाना सीखो.
इस प्यारी सी धरती को  
सूरज सा चमकाना सीखो. 
अपनी धरती के दुश्मन को 
दुनिया से पार लगाना सीखो. 
हँसना और हँसाना सीखो  
हर पल तुम मुस्काना सीखो. 
(२)

                                                                धरती माँ



धरती माँ के वीर सिपाही 
इतना तो बतला देंगे. 
दुश्मन की हो बुरी नज़र 
तो उसको पाठ पढ़ा देंगे
                       
                              

धरती माँ के हर कोने में 
खुशियाँ हम बिखरा देंगे. 
खुशिओं पर जो ग्रहण लगाये
उसको मज़ा चखा देंगे.
                                                              



धरती माँ की बगिया में 
हम सुंदर फूल खिला देंगे. 
इन फूलों को जो मसलेगा 
उसको सही सजा देंगे. 
                       
धरती माँ की ताकत को 
                       दुनिया के आगे कर देंगे. 
                       इसको जो ना माने तो 
                          उसको भी सबक सिखा देंगे. 
                  
धरती माँ के वीर सिपाही 
इतना तो बतला देंगे. 
दुश्मन की हो बुरी नज़र 
तो उसको पाठ पढ़ा देंगे.

रविवार, 11 दिसंबर 2011

मुन्तज़िर


मुन्तज़िर

(1)
आज फिर सब मेरी आँखों के सामने से गुजरा 
वही सर्द मौसम वही ज़र्द चेहरा. 
खुशियाँ पुरबहार पर हवाओं पर पहरा 
यहीं आके कभी वसंत था ठहरा. 
कभी   यहीं पर बंधा था 
मेरे सर जीत का सेहरा. 
आज यहीं है खौफ 
और मौत सा कुहरा 
जिसे देख कर मेरा जिस्म है सिहरा.

(2) 
लम्बे  होने लगे आज फिर ये मौत के साए,
इन बेबाक आँखों में ये बेखौफ से आये.
ये शबनमी बिछौना अब दर्द की दास्तान हो गया, 
ये मखमली चदरा आज शरीरे कफ़न हो गया. 
(3) 
मेरे दर पे आने से पहले दस्तक दिया करो,   
जब तक मैं न कहूँ यूँ ही खड़े रहा करो. 
तुम कोई हवा तो नहीं कि जब चाहो आया जाया करो, 
तुम तो मेरी साँस हो कभी तो रुक भी जाया करो. 

रविवार, 4 दिसंबर 2011

इमारतें


इमारतें 

हमारे शहर की 
बुजुर्ग जर्जर खस्ताहाल इमारतें.    
कंपकंपाती हुई झुकी हुई.
फिर भी खड़ी हैं 
दम साधे डर के साये में  
कि कहीं आ न जाए 
कोई तेज हवा का झोंका. 
और ढह जाएँ वो 
और उनका इतिहास 
नहीं ...
मरने से नहीं डरतीं वो. 
डरतीं हैं इतिहास बनने से
कि इस शहर में 
कोई भी नहीं जीता 
भूत में वर्तमान में 
हर कोई जीता है भविष्य में 
और इन इमारतों का कोई भविष्य नहीं.
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