रविवार, 30 अक्तूबर 2011

दिले नादाँ...

दिले नादाँ...
जब से जाना है 
कोलेस्ट्राल की घनी मोटी परतों ने
मेरे शरीर में डेरा डाला है,
धमनिओं में एक अजीब सी
सिहरन और मीठा अहसास है.
तेरी तस्वीर, 
तेरी याद, 
तेरी बात,
सब उन परतों के पीछे
जो छुपा रखी है.
अब दुनिया की कोई एंजियोप्लास्टी
तुम्हें मुझसे अलग नहीं कर सकती
मेरे मरने तक
और मेरे मरने के बाद भी.  

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

रोशनी


रोशनी

आओ रोशनी के त्यौहार में
इस बार ये कसम खाएं.
भूकंप, आतंक से सहमी दिशाओं पे,
प्यार और शांति का मलहम लगाएं.
देखें धुएं और शोर से फिर कहीं
बहरी न हो जाएँ दिशाएं.
हमारे दियों की रोशनी को
अँधेरे बस यूँ ही न निगल जाएँ.
बेवजह जम गए रिश्तों को
फिर मोम सा पिघलाएं,हिलाएँ, मिलाएं.  
निराश मायूस बैठे न रहें,
हंसी ठहाकों के बम और रॉकेट चलायें.
चेहरे पे आतिशबाजी की छटा
मन में आशा के माहताब जलाएं.
बिजली से न करें रोशनी
किसी मासूम का चेहरा रोशन कराएँ.
आओ रोशनी के त्यौहार में
इस बार ये कसम खाएं
इस बार कुछ अलग सी दिवाली मनाएं.



आप सब के लिये ये रोशनी का त्यौहार, इस बार एक फिर से नयी रोशनी लेकर आये, दीवाली की आप सभी को ढेर सारी शुभकामनायें. 

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

तन्हाई


तन्हाई



कभी फुर्सत में देखती हूँ 
अपने घर से 
पीछे वाले घर की 
एक विधवा दीवार. 
तनहा 
अधमरा पलस्तर 
दरकिनार हो चुका उससे.
शांत, उदास, मायूस 
अपने साथ जुड़े घर की तरह.
मिलने जुलने वालों में, 
दुख बाँटने वालों में 
बची है तो बस 
एक हवा और धूप. 
देखती हूँ 
अचानक बरसात के बाद  
घर का तो पता नहीं
पर दीवार बहुत खुश है. 
नए मेहमान जो आये हैं 
कुछ नन्ही पीपल की कोपलें, 
नन्ही मखमली काई 
और फिर 
उनसे मिलने वाले नए आगंतुक  
तितली, चींटीं, कीड़े, मकोड़े, 
कुछ उनके अतिथि 
गौरय्या, कबूतर 
और न जाने कौन कौन ...
खूब चहल पहल है. 
घर का तो पता नहीं 
पर हाँ! दीवार बहुत खुश है.
सोचती हूँ 
पर कितने दिन ....  

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

बतकही


बतकही 


घर की छत पर रखे 
अचार, पापड़ और बड़ियाँ 
मायूस थे.
पास की छत पर पसरी 
ओढ़नी और अम्मा की साड़ी
धीमे धीमे बतिया रहे थे.
इतनी देर हो गयी, 
कहाँ रह गयी वो ..
आचार, पापड़ और बड़ियों ने 
अपनी अनभिज्ञता जताई,
पडोसी छत से गुहार लगाई
रुमाल ने छोटे शरीर की दुहाई दी.
तो अम्मा की साड़ी ने 
बढती उम्र की. 
आखिर निकलना ही पड़ा ओढ़नी को
कुछ दूर ही उड़ी. 
एक पेड़ की डाल पे,
बादल की छावं में
एक सफ़ेद सुनहरा देहावरण झूलता पाया.
कुछ अनहोनी की आशंका से दिल धड़का. 
अगले ही पल 
पास के पहाड़ की ओट से 
आती कुछ आवाजें.
जाकर देखा. 
अपने स्वभाव के विपरीत 
रुपहले गोटे वाले मटमैले घाघरे 
तिस पर
काले कांच सी पारदर्शी चुनर में उसे... 
लौट आई ओढ़नी..
चेहरे पे शरारत देख 
खीजी और बोल उठी साड़ी
अरे! ऐसा क्या देख आई...
दोनों हाथों से चेहरा छुपा के वो बोली
आज मैंने सांवले, 
मजबूत कद काठी वाले
बलिष्ठ पहाड़ की बाँहों में 
लिपट लिपट कर 
धूप जीजी को नहाते देखा है,  
सो आज न आयेंगी जीजी.

(चित्र दार्जीलिंग के पहाड़ों का मेरे खजाने से) 

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

शहर


शहर 

इस शहर में हर शख्स
बारूद ले के चलता है,
मुंह खोलते बारूद झरता है
उड़ती हैं धज्जियाँ 
अरमानों की यहाँ हर दिन,  
चिथड़े कोई
यहाँ गिनता नहीं, 
रखता नहीं.
गिरह खुल जाए रिश्तों की, 
दिल की कभी, 
सीवन उधड़ जाये 
दिल के दरों दीवार की, घर की 
फेंक दो, दफन कर दो, 
मेरे शहर में अब रफूगर मिलता नहीं.

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