रविवार, 26 जून 2011

पहली तारीख

पहली तारीख


"खुश है जमाना आज पहली तारीख है
मीठा है खाना आज पहली तारीख है"
जाने क्यों मेरे जीवन में,
कोई पहली और आखिरी तारीख नहीं होती
तुम्हारा घर, तुम्हारे बच्चे तुम्हारी दुनिया
संभालती हूँ
बस शायद इसलिए
मैं भी उठाना चाहती हूँ
पहली तारीख का सुख
महीने के तीसों दिन
नहीं जानती
इसके लिए हामी भरना या न भरना
कितना मुश्किल होगा
तुम्हारे लिए
पर तुम्हारे आगे ये बात रखना
बेहद मुश्किल है मेरे लिए.
अरे तुम तो पसीने से तर बतर हो गए
डरो नहीं
मैं कोई केकई नहीं.
जो मांग लूंगी राज पाट.
और तुम भी तो
कोई दशरथ नहीं जो
दे ही डालोगे सब कुछ
मैं चाहती हूँ हर दिन
बस कुछ पल कुछ घंटों का एकांत
जहाँ बस मैं मैं और मैं रहूँ
न कोई याद, न कोई रिश्ता, न कोई चाह
ताकि छूं सकूँ, अपने आपको,
झाँकूँ अपने भीतर
महसूस करूँ अपने आपको
और सुनिश्चित करूँ कि
मैं आज भी
इस दुनिया का हिस्सा हूँ.  

रविवार, 19 जून 2011

अलौकिक मिलन


अलौकिक मिलन


कब से वो एक दूसरे को ताका करते थे दूर से, 
कल जब रात मिलन की आई,
सारी दुनिया कैसे जान गयी?
कोटिक आखें,  
अलौकिक मिलन निहारने को आतुर.
शायद उन्हें भी आभास था. 
तभी तो बादलों को 
समझाया, बुझाया और मनाया 
और तान दी बादलों ने काली रुपहली चादर,
उस प्रेमी युगल के चारों ओर. 
जाने क्या क्या हुआ फिर 
प्रणय प्रलाप, प्रणय विलाप, प्रणय निवेदन,
बाहों के झूले और प्रणय समर्पण,
संभवतः बादल भी ये देख 
खो गया अपनी दुनिया में 
लगा देखने बदली को 
अपनी बाँहों में भरने का ख्वाब. 
वो थोड़ा सकुचाया, शर्माया और सिमट गया.  
उस पल मैंने या शायद कोटि चक्षुओं ने देखा 
प्रेमी युगल को इक दूसरे की बाँहों में. 
उसने भी मुझे देखा.
हया का सुर्ख़ नारंगी रंग 
फैल गया उसकी देह पर.
प्रेमिका अवाक् थी, 
स्थिति से अनभिज्ञ थी. 
हाँ! मैंने देखा धरती और चाँद को,
 एक दूसरे की बाँहों में. 
सोचती हूँ,
 मैं तो होती हूँ,
 जब तब अपने प्रियतम की बाँहों में. 
उफ्फ्फ ... पर उनका क्या 
जो सदियों बाद कभी मिलते हैं.

(चित्र साभार गूगल से)

रविवार, 12 जून 2011

अनुभव


अनुभव     


जीने का तरीका समझने लगी हूँ.
अपना नजरिया बदलने लगी हूँ. 
जीवन का अनुभव है या...
सकारात्मक सोच में रहने लगी हूँ. 
पीछे देखती हूँ अवसाद, अपराध, 
ईर्ष्या मवाद से भरी हूँ. 
बैठ जाती हूँ याद करती हूँ,
इन अहसासों को भरने वाले कारक 
गिन गिन कर निकालने लगी हूँ...
सुबह खिड़की के पास 
फैले रेत के ढ़ेर पर
एक एक नाम लिखने लगी हूँ.
जीने का तरीका समझने लगी हूँ.
अपना नजरिया बदलने लगी हूँ.
पीछे घूम कर देखती हूँ,
प्यार, मीठे, अहसास, खूबसूरत पल, 
खुशियों से भरने लगी हूँ. 
बैठ जाती हूँ याद करती हूँ, 
इन अहसासों को भरने वाले कारक 
गिन गिन फिर निकालने लगी हूँ...
सुबह आंगन में रखे पत्थरों  पर
एक एक नाम उकेरने लगी हूँ.
जीने का तरीका समझने लगी हूँ. 
अपना नजरिया बदलने लगी हूँ. 
अब तो दिन दिन भर
खिड़की पे खड़े हो 
रेत और पत्थर को निहारने लगी हूँ. 
रेत पर तो निशान हैं ही नहीं, 
पत्थरों पे लिखे नाम,
पढ़ मुस्कुराने लगी हूँ. 
कहते हैं इंसान पत्थर सा हो गया है,
कुछ सुनहरे अहसास उकेर कर 
दिमाग को अपने पत्थर समझने लगी हूँ. 
जीने का तरीका समझने लगी हूँ. 
अपना नजरिया बदलने लगी हूँ. 
जीवन का अनुभव है या...
सकारात्मक सोच में रहने लगी हूँ.  

रविवार, 5 जून 2011

गिद्ध


गिद्ध

आज कल एक अजीब सी बीमारी से ग्रसित हूँ 
जिधर देखो गिद्ध ही नज़र  आते हैं
सुना था मृत शरीर को नोचते हैं ये 
पर..... 
ये तो जीवित को ही
कभी मृत समझ बैठते हैं
कभी  मृतप्राय बना देते हैं 
नोचते हैं देह. 
गिद्धों की प्रजाति के 
हर आकार प्रकार को साकार करते 
कुछ बीमार से लगते हैं.
पाचन तंत्र अपने चरम पर है पर 
भोजन नलिका का मुंह संकरा हो चला है. 
छोटी से छोटी फाइल अटक जाती है 
इलाज के लिए 
खाते हैं वो कुछ रंग बिरंगी 
आयुर्वेदिक लाल, हरी, नीली, पीली पत्तियां,
और फिर जी उठते हैं.
पर्यावरणविद् कहते हैं
लुप्त हो रहे हैं गिद्ध......
आज एक बार फिर 
न्यूटन ने  अपने आप को सत्यापित किया है.
उर्जा का ह्रास नहीं होता,
वो एक से दूसरे में परिवर्तित होती है.
पेड़ पर गिद्ध भले ही लुप्त हो रहे हों,
पर उनकी उर्जा,
धरती के गिद्धों को
लगातार स्थानांतरित हो रही है.
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