रविवार, 8 मई 2011

जिंदगी


जिंदगी


बहुत  हुनरमंद हूँ मैं. 
पर सीमाओं में बँधी हूँ.   
नहीं जानती.
क्या आशीष और क्या अभिशाप है मेरे लिए,   
पर अपने आपको सत्यापित करने को, 
मुझे इंसान के हाथों में जाना ही होता है.
बार बार मैं छीली जाती हूँ.  
दर्द और वेदना से भर जाती हूँ.
पर मैं  जितना दर्द सहती हूँ,
उतना ही निखरती जाती हूँ.
जब जब मैंने गलती की है,
मुझे सुधारने का अवसर  मिला है. 
मैंने सुधारा भी है,
जब जब झांकती हूँ अपने अन्दर. 
मेरा सब कुछ मेरे अन्दर ही दीखता है.
मेरा मन, मेरी आत्मा,
भले वो सख्त हो काली हो, 
पर शुद्ध है, चमकदार है, मेरी अपनी है. 
जहाँ जहाँ भी चलती हूँ, अपने निशान छोड़ जाती हूँ.
महत्वपूर्ण ये नहीं कि मैं कहाँ चलती हूँ.
महत्वपूर्ण ये है कि कैसे निशान छोड़ जाती हूँ.
मैं तो अपने आप को इंसान के हवाले कर देती हूँ. 
तुम भी अपने आप को प्रभु के हवाले कर के देखो.
कभी इक पेन्सिल की जिंदगी भी तो जी के देखो!

54 टिप्‍पणियां:

  1. बार बार मैं छीली जाती हूँ.
    दर्द और वेदना से भर जाती हूँ.
    पर मैं जितना दर्द सहती हूँ,
    उतना ही निखरती जाती हूँ.


    एक दर्द भरी दास्ताँ है नारी जीवन की लेकिन .....कभी कभी निखरना अखरता है ....!

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  2. पर मैं जितना दर्द सहती हूँ,
    उतना ही निखरती जाती हूँ.

    दर्द सह कर निखरना .....! जीवन की वास्तविकताओं की तरफ संकेत करता है ....!

    जवाब देंहटाएं
  3. पेन्सिल की जिंदगी.. वाह
    किसे चिंता है वर्ना इतना सोचने की

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह! रचना जी ,पेन्सिल के माध्यम से सुन्दर,और प्रभु को सपर्पण का भाव इंगित करती अनुपम प्रस्तुति की है आपने.
    आपका भाव बहुत अच्छा लगा.बहुत बहुत आभार.

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  5. पेन्सिल की जिंदगी..........

    quite new approach.

    जवाब देंहटाएं
  6. महत्वपूर्ण ये नहीं कि मैं कहाँ चलती हूँ.
    महत्वपूर्ण ये है कि कैसे निशान छोड़ जाती हूँ.
    तुम अपने आप को प्रभु के हवाले कर के देखो.
    कभी इक पेन्सिल की जिंदगी भी तो जी के देखो!
    phir jo bhi rekhayen banengi, usmein zindagi hogi

    जवाब देंहटाएं
  7. ज़िंदगी को पेंसिल के माध्यम से कुछ करने का हौसला ..
    बार बार मैं छीली जाती हूँ.
    दर्द और वेदना से भर जाती हूँ.
    पर मैं जितना दर्द सहती हूँ,
    उतना ही निखरती जाती हूँ.

    बहुत गहन अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  8. जिस तरह पेन्सिल इंसान के हाथों की कठपुतली है , उसी तरह इंसान प्रभु के हाथों की ।
    आपने अच्छा सन्देश दिया है कि दर्द सहकर भी परोपकार करते रहें ।

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  9. बार बार मैं छीली जाती हूँ.
    दर्द और वेदना से भर जाती हूँ.
    पर मैं जितना दर्द सहती हूँ,
    उतना ही निखरती जाती हूँ.

    सुंदर रचना ...सार्थक सन्देश देती हुई

    जवाब देंहटाएं
  10. सीमायें हमारे जीवन का आकार गढ़ती जा रही हैं। बहुत ही सुन्दर रचना।

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  11. pencil kabhi khatm nahin hoti vo zinda rahti hai pannon par ! aur pencil ki chheelan ban jaati hai ek kriti ! jiyo to pencil jaise jiyo ! bahut sundar kavita !!

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  12. दर्द सह कर निखरना .....! जीवन की वास्तविकताओं की तरफ संकेत करता है ....!

    जवाब देंहटाएं
  13. 'तुम भी अपने आप को प्रभु के हवाले करके देखो '

    पेंसिल की जिंदगी....................

    अति सुन्दर , आत्मिक उर्जा से परिपूर्ण रचना

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  14. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (9-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  15. जहाँ जहाँ भी चलती हूँ, अपने निशान छोड़ जाती हूँ.
    महत्वपूर्ण ये नहीं कि मैं कहाँ चलती हूँ.
    महत्वपूर्ण ये है कि कैसे निशान छोड़ जाती हूँ.
    मैं तो अपने आप को इंसान के हवाले कर देती हूँ.
    तुम भी अपने आप को प्रभु के हवाले कर के देखो.
    कभी इक पेन्सिल की जिंदगी भी तो जी के देखो!
    Kitna anootha khayal hai!

    जवाब देंहटाएं
  16. dard sah sah kar hi vah apni jindagi ko aouron ke kam aane ke layak banati hai...behatreen rachna..

    जवाब देंहटाएं
  17. बार बार मैं छीली जाती हूँ
    दर्द और वेदना से भर जाती हूँ
    पर मैं जितना दर्द सहती हूँ
    उतना ही निखरती जाती हूँ

    पेंसिल का प्रतीक रूप में प्रयोग नितांत नवीन है, अनोखा है।
    सारगर्भित कविता के लिए बधाई।

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  18. बहुत सुन्दर, बेहतरीन अभिव्यक्ति!

    जवाब देंहटाएं
  19. सरलतापूर्वक कही गयी कठिन बातें जो जीवन को उपवन बना देती हैं. काव्य रचना का एक सुन्दर, सादगी भरा अंदाज़.

    जवाब देंहटाएं
  20. wah kya baat hai.......

    pratikatmak lekhan prabhavshalee raha ...
    aabhar

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  21. नारी जीवन भी पेंसिल के जीवन सा ही है ... कदम कदम पर छली जाती है छीली जाती है ...

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  22. मुझे सुधारने का अवसर मिला है.
    मैंने सुधारा भी है,
    जब जब झांकती हूँ अपने अन्दर.
    मेरा सब कुछ मेरे अन्दर ही दीखता है..
    दिल को छू गयी ये पंक्तियाँ! बेहद सुन्दर और भावपूर्ण रचना!

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  23. सोना आग मे तप कर ही खरा बनता हे, एक अति सुंदर रचना सुंदर सन्देश देती हुयी

    जवाब देंहटाएं
  24. बहुत हुनरमंद हूँ मैं.
    पर सीमाओं में बँधी हूँ.
    ----------------
    तुम भी अपने आप को प्रभु के हवाले कर के देखो.
    कभी इक पेन्सिल की जिंदगी भी तो जी के देखो!
    ---वाह,बहुत खूब.
    सुंदर रचना,आभार.

    जवाब देंहटाएं
  25. बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लाजवाब रचना लिखा है आपने..पेन्सिल की जिंदगी भी तो जी के देखो...सुंदर

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  26. काठ की कोठरी में बंद ग्रेफाईट की एक छड का इतना सुन्दर आत्मकथ्य!! मुग्ध हो गए हम!!

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  27. bhavnon ki utkrisht abhivyakti ,vichron ki gahanata prabhavit kar gayi . shukriya ji .

    जवाब देंहटाएं
  28. कभी इक पेन्सिल की जिंदगी भी तो जी के देखो!
    जब ओपेन्सिल की तरह घिसेंगे तभी निशान छोड पायेंगे\ सुन्दर भाव। शुभकामनायें।

    जवाब देंहटाएं
  29. "कभी इक पेन्सिल की जिंदगी भी तो जी के देखो!"
    आपकी कल्पनाशीलता का जबाब नहीं - सादर

    जवाब देंहटाएं
  30. अनुभवों से ओतप्रोत कविता.
    बार बार मैं छीली जाती हूँ.
    दर्द और वेदना से भर जाती हूँ.
    पर मैं जितना दर्द सहती हूँ,
    उतना ही निखरती जाती हूँ.
    अच्छी प्रस्तुति. कविता को तस्वीर और भी नया जीवन दे रही है .

    जवाब देंहटाएं
  31. महत्वपूर्ण ये नहीं कि मैं कहाँ चलती हूँ.
    महत्वपूर्ण ये है कि कैसे निशान छोड़ जाती हूँ.

    वाह क्या बात है, जिंदगी जीना हो तो ऐसे ...

    जवाब देंहटाएं
  32. एक अति सुंदर रचना सुंदर सन्देश देती हुयी|
    धन्यवाद|

    जवाब देंहटाएं
  33. जब जब झांकती हूँ अपने अन्दर.
    मेरा सब कुछ मेरे अन्दर ही दीखता है.
    मेरा मन, मेरी आत्मा,
    भले वो सख्त हो काली हो,
    पर शुद्ध है, चमकदार है, मेरी अपनी है.
    जहाँ जहाँ भी चलती हूँ, अपने निशान छोड़ जाती हूँ.
    महत्वपूर्ण ये नहीं कि मैं कहाँ चलती हूँ.
    महत्वपूर्ण ये है कि कैसे निशान छोड़ जाती हूँ.
    मैं तो अपने आप को इंसान के हवाले कर देती हूँ.
    तुम भी अपने आप को प्रभु के हवाले कर के देखो.

    bahut sahi....

    hame apne andar bhi jhaankna chahiye....

    aatm chintan bina koi bhi chintan adhura hai.......

    जवाब देंहटाएं
  34. pensil ke chhilke ki tasvir sab kah gai .aapne isko madhyam bana kar bahut khoob likha hai

    जवाब देंहटाएं
  35. अभी अभी एक पोस्ट पढ़ी थी क्या टिप्पणियाँ व्यर्थ जाती है और उसमे टिप्पणी कारों ने कहा था की चाटुकारिता होती है लेकिन अगर ब्लोगर्स इतना अच्छा लिखते हैं तो कैसे बुरी टिप्पणी दे कोई


    भावनाओ का सजीव चित्रण है प्रार्थना करूँगा की मै भी ऐसा लिख सकूं :)

    जवाब देंहटाएं
  36. बार बार मैं छीली जाती हूँ.
    दर्द और वेदना से भर जाती हूँ.
    पर मैं जितना दर्द सहती हूँ,
    उतना ही निखरती जाती हूँ.
    bahut hi sundar bisya par rachna likhi hai ,gun adhik mahtav rakhta hai sach kaha ,tasvir bha gayi hame .matri divas ki dhero badhai

    जवाब देंहटाएं
  37. यही जीवन है ...
    बस भूलों से कुछ सीख पायें तो यही बहुत होगा...शुभकामनायें आपको !!

    जवाब देंहटाएं
  38. बार बार मैं छीली जाती हूँ.
    दर्द और वेदना से भर जाती हूँ.
    पर मैं जितना दर्द सहती हूँ,
    उतना ही निखरती जाती हूँ.

    गहन भावों के साथ सशक्‍त प्रस्‍तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  39. रचना जी क्या कहें आप तो खुद ही रचना हो आप की रचनाएँ प्यारी क्यों न हो पेन्सिल की जिंदगी और ढेर सारे शीर्षक आप की छवियाँ खुद ही सब बयां कर जाती हैं

    मेरा मन, मेरी आत्मा, भले वो सख्त हो काली हो, पर शुद्ध है, चमकदार है, मेरी अपनी है.
    अति उत्तम

    बधाई हो

    जवाब देंहटाएं
  40. बहुत सुंदर रचना, पेन्सिल के माध्यम से जीवन की सीख देती इस भावयुक्त कविता के लिये बधाई !

    जवाब देंहटाएं
  41. आदरणीय रचना दीक्षित जी
    नमस्कार !
    जब जब झांकती हूँ अपने अन्दर.
    मेरा सब कुछ मेरे अन्दर ही दीखता है
    सुंदर सन्देश देती हुयी
    ..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती

    जवाब देंहटाएं
  42. पर मैं जितना दर्द सहती हूँ,
    उतना ही निखरती जाती हूँ.

    khoobsurat rachna

    जवाब देंहटाएं
  43. सहा दर्द जितना उतना निखार आया । प्रभू के हवाले करना ही तो बहुत कठिन है , मामेकं शरणं बडा कठिन है जी

    जवाब देंहटाएं
  44. महत्वपूर्ण ये नहीं कि मैं कहाँ चलती हूँ.
    महत्वपूर्ण ये है कि कैसे निशान छोड़ जाती हूँ...

    एक पेंसिल को विम्ब बनाकर बहुत ही गहन और मार्मिक प्रस्तुति..बहुत उत्कृष्ट रचना..

    जवाब देंहटाएं
  45. कभी इक पेन्सिल की जिंदगी भी तो जी के देखो!
    ..वाह! अच्छा संदश देती है यह कविता। पेंसिल शब्द स्त्रीलिंग है इसलिए इसको नारी के लिए ही लिखा गया है, ऐसा मुझे नहीं लगता। यह तो सभी के लिए अनुकरणीय है।

    जवाब देंहटाएं
  46. पेंसिल को बिम्ब बनाकर सहज मानवीय मनोभावों को काफ़ी सरलता से और सफलतापूर्वक शब्दांकित किया है आपने|

    जवाब देंहटाएं
  47. बहुत ही बढ़िया रचना और उससे भी सुंदर प्रस्तुति
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  48. rachna ji
    bahut hi sundar aur jindgi ki dher saare ulahano ko aapne apni kalam ke jariye bahut hi sundar dgang se aabhivykat kiya hai
    baht hi behatreen
    hardik badhai
    poonam

    जवाब देंहटाएं
  49. Pensil kee jindagee kitani alag see kawita hai bahut pasand aaee.

    जवाब देंहटाएं
  50. बहुत खूब....

    पेंसिल का माध्यम बेमिशाल

    www.poeticprakash.com

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  51. पेन्सिल की जिंदगी..एक दर्द भरी दास्ताँ है नारी जीवन की...आपका भाव बहुत अच्छा लगा

    जवाब देंहटाएं

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