रविवार, 29 मई 2011

मेरा शहर


मेरा शहर



मेरे शहर को सुरक्षित, 
चाक चौबंद रखने को. 
गली, चौराहों, मॉल, सडकों, 
रेलवे स्टेशन, एअर पोर्ट,
हर जगह लगे हैं, 
सी सी टी वी कैमरे. 
अचानक 
जब कभी घटती है,
कोई घटना या दुर्घटना. 
खंगाले जाते है ये सभी. 
उनमें से अधिकांश, 
नहीं उतर पाते खरे.
अपनी ही कसौटी पर. 
और 
ठगे जाते हैं हम. 
मेरे शहर में और भी, 
कई जगहों पर हैं. 
ऐसे ही कैमरे, 
चेंजिंग रूम, बाथ रूम 
गर्ल्स होस्टल, होटल रूम 
यहाँ तक कि 
घर के बेड रूम. 
ये अपनी कसौटी पर 
उतरते हैं खरे. 
वो भी शत प्रतिशत. 
यहाँ भी एक बार.
फिर ठगे जाते हैं हम.

रविवार, 22 मई 2011

मेरे एहसास


मेरे एहसास 
(1)

कभी पट गयी थीं धमनियां मेरी,
अवसाद के कोलेस्ट्राल से, 
जब से तुम आये,  
सबेरे की सैर, 
वो मिश्री घोलता संगीत. 
हर पल अपने पल का अहसास,
तुम्हारी मीठी बातों में,
कोलेस्ट्राल तो घुल गया
अब शायद मेरी बारी है .....

(2)

कभी दिल जोरों से धड़क जाता था,
उनके आने पर, 
और कभी उनके न आने पर. 
कभी सांसे बेतरतीब हो जाती थीं.
उनसे नज़र मिल जाने पर, 
या फिर बिछड़ जाने पर.
कभी दिल दिमाग अनियंत्रित हो जाता था.
उनका स्पर्श पाने पर, 
या कभी उसका अहसास हो जाने पर, 
अब सब नियंत्रित है 
अब तो लगता वही मुझे मेरा पेस मेकर है,  
उन मजबूत बाहों से लिपट जाने पर.  

रविवार, 15 मई 2011

जन्म-जन्मान्तर


जन्म-जन्मान्तर 



इस दुनिया से जाने के नाम पर
डर, 
मरने का नहीं, 
बिछुड़ने का है 
अगला जन्म, 
मनुष्य योनी में,
मिलना जरूरी तो नहीं.
फिर 
हमारी जन्म जन्मान्तरों तक,
साथ निभाने वाली कसमों का क्या ?
चलो 
आज भगवान से प्रार्थना करें, 
हमें प्लास्टिक ही बना दें
पड़े रहेंगे सदियों तक जैसे के तैसे.
पर ये क्या .....
प्रकृति के प्रति असंवेदनशीलता.
ये प्रार्थना वापस,
फिर,
भगवान,
हमें कागज़ ही बना देना.
रिसायकिल हो हो कर ही सही 
कुछ जन्म तो  निकाल ही  लेंगें, 
एक ही योनी में.
सात  जन्म न सही, 
कुछ जन्मों का साथ तो मिले.  
आज के अनिश्चित जीवन में.

रविवार, 8 मई 2011

जिंदगी


जिंदगी


बहुत  हुनरमंद हूँ मैं. 
पर सीमाओं में बँधी हूँ.   
नहीं जानती.
क्या आशीष और क्या अभिशाप है मेरे लिए,   
पर अपने आपको सत्यापित करने को, 
मुझे इंसान के हाथों में जाना ही होता है.
बार बार मैं छीली जाती हूँ.  
दर्द और वेदना से भर जाती हूँ.
पर मैं  जितना दर्द सहती हूँ,
उतना ही निखरती जाती हूँ.
जब जब मैंने गलती की है,
मुझे सुधारने का अवसर  मिला है. 
मैंने सुधारा भी है,
जब जब झांकती हूँ अपने अन्दर. 
मेरा सब कुछ मेरे अन्दर ही दीखता है.
मेरा मन, मेरी आत्मा,
भले वो सख्त हो काली हो, 
पर शुद्ध है, चमकदार है, मेरी अपनी है. 
जहाँ जहाँ भी चलती हूँ, अपने निशान छोड़ जाती हूँ.
महत्वपूर्ण ये नहीं कि मैं कहाँ चलती हूँ.
महत्वपूर्ण ये है कि कैसे निशान छोड़ जाती हूँ.
मैं तो अपने आप को इंसान के हवाले कर देती हूँ. 
तुम भी अपने आप को प्रभु के हवाले कर के देखो.
कभी इक पेन्सिल की जिंदगी भी तो जी के देखो!

रविवार, 1 मई 2011

डोन


डोन



मैं डोन हूँ ग्यारह मुल्कों की पुलिस
मुझे ढूंढ़ रही है.
अलग मुल्क, अलग लोग,
अलग उन्हें निपटाने के तरीके 
कैसे-कैसे पार लगाया उन्हें,
कितने क़त्ल किये  
कितनों को मौत के घाट उतारा,
कितनों को जिन्दा भून डाला,
कोई भट्टी में पका,कोई तवे में सिंका
कितनों को तो यूँ ही धो डालती हूँ मिनटों में, 
पर अब भागते- भागते थक गयी हूँ 
किचेन से, माइक्रो वेव से, ओ टी जी से 
मिक्सी से वाशिंग मशीन से फोन, डोर बेल, 
मेहमान, बच्चे, पति
नहीं जानती क्या करूँ 
बेमौत मरना भी नहीं चाहती 
हाँ, आत्मसमर्पण से डरती हूँ 
कहीं ये ग्यारह मुल्क ही
मुझे पहचानने से इंकार न कर दें        
पर अब समझने जरुर लगी हूँ.
ग्यारह मुल्कों की पुलिस मुझे ढूंढ़ नहीं रही,
न ही मेरे लिए पलक पांवड़े बिछाए बैठी है,
वो तो मुझे उँगलियों पे नचा रही है.
हाँ.... मैं अपने पूरे होशो हवास में,
ये स्वीकार करती हूँ 
कि मैं ग्यारह मुल्कों की पुलिस की 
उँगलियों पर नाचने वाली 
इक डोन हूँ.


(चित्र गूगल से साभार)
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