रविवार, 27 फ़रवरी 2011

आहट

आहट
हर दिन की शुरुआत होती है,
आवाजों से...
घंटी की घनघनाहट...
कूड़े वाला, ढूधवाला, गाड़ी साफ करने वाला.   
काम वाली की आहट.
बर्तनों की खनखनाहट...
पास से गुजरती रेलगाड़ी 
और उसकी झनझनाहट...
बारह बजते बजते
शांत सा होने लगता है सब कुछ, 
फिर रसोई में 
कुकर की सनसनाहट...

मिक्सी की मिमियाहट...

चकले बेलन की चिचियाहट...

तीन बजे जब शरीर पलंग को छूता है   
शरीर के अंगों से आती  थरथराहट...
अनसुनी कर देती हूँ 
फिर शाम पार्क से
आती हवा की सरसराहट...
क्रिकेट खेलते बच्चों की किटकिटाहट...    
सैर करती महिलाओं की खिलखिलाहट...
लोरी गाती माँ की गुनगुनाहट...
कितना शोर, कितनी आवाजें आती हैं 
इस घर में, सारा दिन,  सब कहते हैं
रात को जब बिस्तर से लगती हूँ 
आती हैं मन से तरह तरह की आवाजें 
सुनती हूँ, समझती हूँ, समझाती हूँ,
सहलाती हूँ, पुचकारती हूँ और चुप करा देती हूँ.
क्योंकि  माहिर हूँ मैं इस काम में,
पर कभी जिद्द पर अड़ जाती हैं. 
कुछ आवाजें
आँखों के रस्ते बाहर आती हैं
फैल जाती हैं पूरे कमरे में,
न जाने घर में
किसी को क्यों नहीं सुनाई देती हैं
ये आवाजें  मेरे  सिवाय ?

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

उत्तराधिकारिणी

उत्तराधिकारिणी




चहल, चुहल शोर और हुडदंग का

माहौल था उस घर में

रहते थे जब

होली दीवाली दशहरा उस घर में.

समय बदला सरोकार बदला.

रहने लगे

इकादाशी, प्रदोष और पूनम उस घर में

मौसम बदला मिजाज़ बदला

घर करने लगा कृष्ण पक्ष उस घर में.

झलक दिखला जाये गलती से जो चांदनी

यूँ लगे की शुक्ल पक्ष है

यही कहीं उस घर में

होती रहीं आशाएं बलवती

आ ही जाएगी कभी

वो भी खिलखिला के इस घर में.

सूरत बदली, सीरत बदली

अपने साजो सामान........

अँधेरे, सन्नाटे, और अनजान डर के साथ

पसरने आ गई इक दिन अमावस उस घर में.

लोग बदले लगाम बदली.

इक दिन वो आई

इतराई, इठलाई, अलसाई

छिटकी और बिखर गई उस घर में.

बोली उनको न आना है

न वो आएंगे इस घर में

मैं हूँ मौनी अमावस "असली उत्तराधिकारिणी "

अब से मैं ही रहूंगी इस घर में.

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

प्रणय पर्व

प्रणय पर्व 







इतने बरसों बाद सही,  
इस बार सफल हो जाऊं... 
आँखों में बसने को तेरी,
मैं काजल हो जाऊं...

उर द्वार बसा लो जो मुझको, 
मैं सांकल हो जाऊं...
तेरे हांथों में आने को,
मैं आंचल  हो जाऊं...

ऐसे मुझे लजाओ आज, 
मै जमुना जल हो जाऊं...
प्रतिबिम्ब निहारो तुम अपना मुझमें 
मैं खिल के, कमल हो जाऊं...
देहावरण,  मुझे बनालो,
मैं मलमल हो  जाऊं...
तेरा स्पर्श पाते ही,
मैं निर्मल हो जाऊं...

धोकर के  सारी शंकाएं, 
मैं आज  धवल हो जाऊं... 
प्रणय पर्व मनाओ ऐसे, 
कि मैं ताजमहल हो जाऊं... 
इतने बरसों बाद सही,
इस बार सफल हो जाऊं... 

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

सरगम

सरगम




रीत गया दिन सब पीत हुआ,

अब रक्तारुण होने आया.

स्वप्नचलित से मनोभाव ने,

मन ऐसा भरमाया.

स्पर्श के आकर्षण से वो,


बाहर ना आ पाया.


हो हृदय का राजस्व अपहृत,


नैनों का पलंग बिछाया.

खिल गया सुनहला कमल,

मुख पर मृदु हास ले आया.

मधुर साज़ से सृजित साँझ ने,

साँसों का सरगम मृदुल बजाया.

सुदीर्घ विचुम्बित पलकों को,


मयूर पांख सा पसराया.


सोम सुधा की रेख सजा,


नवल अधर श्रृंगार कराया.


सोम के झरते कणों का मधुपान,

हाय! मकरंद न कर पाया.

अपने नयन कुंवारों को फिर,

मैंने तृषित सुलाया.
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