मंगलवार, 4 जनवरी 2011

धूप का दर्द

धूप का दर्द


अब तो धूप के भी पांव जलने लगे हैं
अपनी ही तपिश से.
न सहारा न छाँव
कभी यहाँ पेड़ हुआ करते थे.
उनकी टहनियों पर बैठ
सुस्ता लेती थी धूप.
कभी पत्तियों के साथ
आंख मिचोली
कभी पक्षियों संग
छुपन-छुपाई.

अब तो धूप के भी पांव सुलगने लगे हैं
अपनी ही तपिश से.
कंक्रीट के घने ऊँचे जंगल.
सुलगती छतें.
मीलों फैले रेगिस्तान
उस पर रूठी बयार.
पानी को तरसती
धरती की छाती.

अब धूप के पांव में फफोले पड़ने लगे हैं
अपनी ही तपिश से.
सुबह से शाम तक सिर्फ चलना
मीलों मीलों और मीलों.
एक घर से दूसरा
एक गली से दूसरी.
शाम होते होते
बेहाल बेदम बेहोश हो कर
लड़खड़ा कर गिर पड़ती है धूप.
और सारी रात
चांदनी का मलहम लगा कर
किसी कोने में पड़ी
करवटें बदलती कराहती सुबकती है धूप.
फिर अनमने से करती है
अगले दिन का इंतजार.

अब धूप के पांव के घाव बढ़ने लगे हैं
अपनी ही तपिश से.
सोचती है धूप, कि कह दूं
अपने दिल की बात.
कब लगेंगे पेड़
कब फूटेंगी कोपलें.
कब खेलूंगी
धूप छावं का खेल.
कब आँगन में किसी बच्चे की
बन के छाया
अठखेलियाँ करूंगी.
कब आएगा बादल
कब बरसेगी बदली.
कब दिन भर अपने घर बैठ
चिंतन करूंगी.
आगे बढ़ने की  दौड़ में
ऐ दुष्ट प्राणी
तूने क्या खोया क्या पाया
पैसा कमाने की होड़ में
भूल गया मुझ दुखयारी को
थक गयी हूँ मैं.
मुझे विश्राम चाहिए
मुझे कुछ पेड़ चाहिए.

43 टिप्‍पणियां:

  1. rachnaji,

    bahut hi sundar rachna ke liye aapka aabhar,

    dhoop ke dard ko bahut sundar tareeke se vyakt kiya

    जवाब देंहटाएं
  2. "धूप के भी पांव जलने लगे हैं"
    वाह वाह नई approach के साथ सार्थक और बेहतरीन कविता.
    नया साल आपको बहुत बहुत मुबारक

    जवाब देंहटाएं
  3. धूप के भी पाँव जलने लगे हैं...वाह एक दम नयी सोच के माध्यम से आपने बहुत से विषयों को अपनी रचना में उठाया है...आपका लेखन लीक से हट कर है...बधाई.

    नीरज

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह! बेहद अलग नज़रिया दिया है और दिल मे उतार दिया है…………आपकी सोच को सलाम्।

    जवाब देंहटाएं
  5. नई बात कहती बेहतरीन कविता !
    नववर्ष की बधाइयाँ !

    जवाब देंहटाएं
  6. सच है, विकास की गर्मी न धूप के भी पैर सुलगा दिये हैं।

    जवाब देंहटाएं
  7. anokhi soch se upji rachna .... alag sa khyaal है aapki is rachnamein ...
    naya saal bahut bahut mubaarak ho aapko ...

    जवाब देंहटाएं
  8. और सारी रात
    चांदनी का मलहम लगा कर
    किसी कोने में पड़ी
    करवटें बदलती कराहती सुबकती है धूप.

    बड़ी ही नायाब अभिव्यक्ति है
    रचना जी की सुन्दर रचना :)

    जवाब देंहटाएं
  9. अब धूप के पांव में फफोले पड़ने लगे हैं
    अपनी ही तपिश से.
    सुबह से शाम तक सिर्फ चलना
    मीलों मीलों और मीलों.
    एक घर से दूसरा
    एक गली से दूसरी.
    शाम होते होते
    बेहाल बेदम बेहोश हो कर
    लड़खड़ा कर गिर पड़ती है धूप.
    और सारी रात
    चांदनी का मलहम लगा कर
    किसी कोने में पड़ी
    करवटें बदलती कराहती सुबकती है धूप.
    फिर अनमने से करती है
    अगले दिन का इंतजार... bahut hi achhi rachna hai

    जवाब देंहटाएं
  10. पक्षियों सँग छुपन छुपाई
    वाह क्या शब्द प्रयोग है रचना जी| बधाई|

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  11. प्रयावरण प्रदुषण और मानवीय ....करतूतो का अच्छा विश्लेषण

    जवाब देंहटाएं
  12. आजकल हर कोई अपना दर्द अभिव्यक्त करना चाह रहा है ..पर धुप के दर्द की अभिव्यक्ति ने सबके दर्द को सबके साथ साँझा कर दिया ..बहुत संजीदा तरीके से लिखी गयी इस कविता में प्रकृति के साथ किये गए छेड़ छाड़ को सामने लाया गया है ...आपका बहुत आभार रचना जी ..

    जवाब देंहटाएं
  13. पर्यावरण पर सुन्दर सन्देश देती हुई रचना ।
    एक लेख विजय माथुर जी के ब्लॉग पर भी छपा है इसी विषय पर ।

    जवाब देंहटाएं
  14. सुंदर से चित्र के साथ प्यारी सी कविता.. खुबसूरत एहसास के साथ.
    बचपन क़ी तस्वीर

    जवाब देंहटाएं
  15. Wah! Rachanaji wah!Mere paas alfaaz nahee hain daad dene ke liye!

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  16. kehte hain "jaha na pahuche ravi waha pahunche Kavi"...galat nai kehte hain...

    ati-sundar kavita

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  17. नष्ट होते पर्यावरण और फैलते कंक्रीट के जंगल जैसी समस्या को आपने सूरज की बुलंदी प्रदान की है अपनी कविता में!! अतिप्रशंसनीय!!

    जवाब देंहटाएं
  18. ठंडी छाया आसानी से नहीं मिलती .......
    आपको शुभकामनायें !

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  19. थक गयी हूँ मैं.
    मुझे विश्राम चाहिए
    मुझे कुछ पेड़ चाहिए....

    सार्थक प्रस्तुति ।
    आभार।

    .

    जवाब देंहटाएं
  20. आदरणीय रचना जी
    नमस्कार !
    बहुत संजीदा तरीके से लिखी गयी कविता

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  21. बेहतरीन पोस्ट...बधाई
    बहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...

    जवाब देंहटाएं
  22. विकास की अट्टालिका पर, नहीं वृक्षों की छांव . बिचारी धूप ने भी जला लिए अपने पांव . एक सामयिक और सार्थक रचना .

    जवाब देंहटाएं
  23. थक गयी हूँ मैं.
    मुझे विश्राम चाहिए
    मुझे कुछ पेड़ चाहिए....

    बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द रचना ।

    जवाब देंहटाएं
  24. सुन्दर प्रस्तुति,
    आप की कविता बहुत अच्छी लगी
    बहुत बहुत आभार

    जवाब देंहटाएं
  25. 'धूप के भी पाँव जलने लगे हैं'
    क्या कहने!मुझे भी इस पंक्ति ने थाम लिया है.
    ...
    कविता और कविता की प्रस्तुति दोनों बेहद पसंद आयीं.

    जवाब देंहटाएं
  26. शाम होते होते
    बेहाल बेदम बेहोश हो कर
    लड़खड़ा कर गिर पड़ती है धूप.
    और सारी रात
    चांदनी का मलहम लगा कर
    किसी कोने में पड़ी
    करवटें बदलती कराहती सुबकती है धूप.

    बेहतरीन बिम्ब और भाव
    धूप को भी छाँव नहीं मिलती है शायद

    जवाब देंहटाएं
  27. धूप ले माध्यम से प्रकृ्ति पर मनुष्य दुआरा हो रहे अत्याचार का सुन्दर चित्रण किया है। सुन्दर स्र्थक रचना। बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  28. एक दम नयी सोच...एक बेहतरीन कविता...

    जवाब देंहटाएं
  29. "मुझे कुछ पेड़ चाहिए"
    कविता की अंतिम पंक्ति ने तो जैसे झकझोर कर रख दिया !
    आज जिस बेरहमी से शहरीकरण और विकास के नाम पर पेड़ों को काटा जा रहा है वह दिन दूर नहीं जब धूप के भी पाँव जलने लगेंगे !
    रचना जी,
    आपकी कविता के भाव बहुत गहरा प्रभाव छोड़ते हैं !
    सामयिक और शशक्त रचना !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

    जवाब देंहटाएं
  30. शहरों की आबादी जब बढ़ी
    खेतों में पत्थर के घर उगे
    ....सही लिखा आपने धरती को पेड़ चाहिए।

    जवाब देंहटाएं
  31. bahut sundar likha hai ,dhoop ki tarah hi faila hua paratit ho raha hai .

    तूने क्या खोया क्या पाया
    पैसा कमाने की होड़ में
    भूल गया मुझ दुखयारी को
    थक गयी हूँ मैं.
    मुझे विश्राम चाहिए
    bahut sundar bhav hai .shirshak bhi khoobsurat hai .

    जवाब देंहटाएं
  32. काश , धूप की ये बात सुन लेता इंसान ...
    जो आपकी रचना में अभिव्यक्त हो रही है...
    आपकी कविता बहुत अच्छी लगी !

    जवाब देंहटाएं
  33. bahut sundar aur saarthak hai Rachna ji aapaki rachnaa...Nav varsh ki mangal kamanaayen...

    जवाब देंहटाएं
  34. bahut sundar aur saarthak hai Rachna ji aapaki rachnaa...Nav varsh ki mangal kamanaayen...

    जवाब देंहटाएं
  35. आदरणीया रचना दीक्षित जी
    सस्नेहाभिवादन !

    धूप का दर्द बख़ूबी बयान किया है आपने ।
    और … इस दर्द में अंतर्निहित दर्द को सलाम करता हूं मैं !

    रचना जी , आपकी लेखनी सिर्फ़ लिखने के लिए ही नहीं चलती । आपकी कविताओं में अनुभूतियां जीवंत दृष्टिगत होती हैं ।
    मेरा हृदय इन अनुभूतियों की संवेदना से भर जाता है …

    आपकी कविता की एकाध पंक्ति को उद्धृत करना बहुत दुरूह - दुष्कर कार्य है ।

    आपके लिए हृदय से मंगलकामनाएं हैं !

    शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

    जवाब देंहटाएं

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