रविवार, 19 दिसंबर 2010

वियोग

वियोग




काया पूरी सिहर उठी,

हुई उष्ण रश्मि बरसात.

अघात वर्धिनी बातों ने,

था तोड़ा उर का द्वार.

सांसें सिमट गयीं सिसकी में,

आया ऐसा ज्वार.

हुआ रोम रोम मूर्छित,

धमनी में वेदना संचार.

पलक संपुटों में उलझे बिंदु,

गिर गिर लेने लगे शून्य आकार.

मैं खोल व्यथा की गांठ उजवती,

बिछोह का रो रो त्योहार.

वो जाने कैसा पल था,

जब बही वियोग बयार.

रविवार, 12 दिसंबर 2010

भोर

भोर



छंटने लगा धरा से अब तो,

पसरा हुआ तिमिर आच्छादन.

नील तमस का अंत समय है,

टूट रहा धरती से बंधन.

दूर गगनचुम्बी शिलाओं पर,

आतुर बैठे हैं सब हिम कन.

उनको अपने प्याले में भरने को,

घूम रहे हैं इत उत घन.

बहका रही धरा को अब है,

पुष्प पराग औ सुरभि की बिछलन.

शुष्क समीर की सरगम,

लगी चाटने है तुहिन कन.

अरुणिम पीत हरीतिमा देखो,

बिखर रही है सुमन सुमन.

ये किसे रिझाने को प्राची,

इतराती आंगन आंगन,

संकेत और संवाद कह रहे.

आने को है नवयौवन.

देखो कैसे विस्मित करता,

ये सांसों में भरकर जीवन.

ये हिमकर का है पुनर्गमन

और रविकर का पुनरागमन.

 
(चित्र गूगल से साभार)

रविवार, 5 दिसंबर 2010

अंधियारा

अंधियारा

                                                                                     
मैं अपने घर के आसपास
देखती हूँ
सफ़ेद उजले
कहीं सुनहरे कही रुपहले
बड़े बड़े घर
हर तरफ उजाला
हर तरफ ख़ुशी
कैसे सहेजे रहते हैं ये
इतना उजाला
इतनी ख़ुशी
कल पूरब में
तेज रौशनी के बीच
सूरज की एक खिड़की खुली थी
देखा
दूर फर्श पर
एक कोने में
कैद अंधियारा सुबक रहा था.
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