रविवार, 28 नवंबर 2010

आकर्षण

आकर्षण



कुछ लोग अत्यधिक सख्त होते है,

या हो जाते हैं.

जैसे कि तुम.

सबने तुम्हें आज़मा के देखा.

मैंने भी,

अंतर इतना ही था,

कि सब नमी से, व्यथित थे.

और मैं, नमी के लिए.

जानती जो हूँ, कि नमी के बिना,

मेरा अस्तित्व ही नहीं,

एक वो ही है, जो मुझे,

तुम्हारे नजदीक लाती है.

तुम्हारे नजदीक आते ही

फैलती हूँ, बिखरती हूँ.

मैं लिपटती हूँ, तुम्हारी देह से.

पाती हूँ सम्पूर्ण अपने आपको.

और जानते हो तब कैसी,

लालिमा निखरती है तुम्हारी काया पर.

क्या कहूँ अब,

जब से धरा है तुमने ये लौह रूप,

तुम्हारा सामीप्य पाने को.

मुझे जंग होना ही पड़ा है.



(चित्र गूगल से साभार)

रविवार, 21 नवंबर 2010

तपिश

तपिश




जब भी महसूस करती हूँ,

सूरज की अत्यधिक तपिश.

जाने क्यूँ मुझे लगता है,

मेरा बचपन लौट आया है.

सोचती हूँ,

चुरा लूँ इसकी कुछ तपिश.

सजाऊँ अपनी छत,

नन्ही नन्ही डिबियों वाले,

कुछ आयताकार पटल से

कैद कर लूँ चोरी की ये तपिश.

उन नन्ही डिबियों में.

ताकि सूरज उन्हें वापस न ले जा सके.

फिर सारा दिन खिड़की से,

उसके जाने की राह तकूँ.

जाते ही उसके

घर के हर कोने में,

अपनी मन पसंद आकर के,

छोटे बड़े सूरज उगाऊं.

पूरे घर के हर कोने को,

सूरज की रोशनी से नहलाऊँ.

यूँ लगे की यहाँ हर रोज दीवाली है.

अब बताना तुम्हें है कि,

मेरा बचपन लौट आया या

मैं अधिक संवेदनशील हो गयी हूँ.



(चित्र साभार गूगल से)

रविवार, 14 नवंबर 2010

जल संचयन

जल संचयन




मैं, जल पवित्र नदियों और सागर का,

उड़ के अम्बुद बन इतराता अंबर में,

देखता हूँ जब धरा पे

सूखी माटी, प्यासे तन-मन.

गिरता हूँ, टपकता हूँ, बिखरता हूँ,

सरकता हूँ, तर करता हूँ,

हर आंगन, अटारी, चौबारा और मन....

इस तरह प्यार करता हूँ इस धरिणी

और इसकी संतान से

कि यहीं से बनता हूँ ,

यहीं के लिए बनता हूँ,

यहीं पर ही मर मिटता हूँ.



मैं, जल पवित्र नदियों और सागर का

बहाया जाता हूँ घर कि नालियों में,

गंदे नालों में, सड़कों पे,

गटर में और न जाने कहाँ कहाँ.

कहते हैं सृष्टि में,

जीवन का अभिन्न अंग हूँ मैं !!!

मेरे बिन जी नहीं सकते तुम सब.

पर.... मुझे प्यार भी तो नहीं करते.



दुलारो, पुकारो, पुचकारो, थपथपाओ,

मुझे प्यार करो.

भर लो किसी पोखर, किसी बावड़ी में,

कहीं नांद, कहीं हौद में,

कर लो हर घर में, वर्षा जल संचयन

तुम सब के प्रति मेरे प्रगाढ़ प्रेम का,

एक बार, यूँ भी तो जवाब दे के देखो.

मैं, जल पवित्र नदियों और सागर का.



जल संचयन को आप अंग्रेजी में water harvesting से जानते है.

(चित्र साभार गूगल के सौजन्य से.)

रविवार, 7 नवंबर 2010

समीकरण

समीकरण





याद नहीं पर जाने कब से सुनती आई हूँ.

सुहागिन औरतें रखती हैं निर्जला,

करवा चौथ का उपवास,

अपने पति की लम्बी आयु के लिए,

मैंने भी रखे कितने ही ...

केवल तुम्हारे नाम पर.

पर आज थोडा असहज महसूस कर रही हूँ,

सोचा सच आज बता ही दूँ.

मैंने रखे ये उपवास.

तुम्हारे दीर्घायु होने के लिए नहीं,

अपने निजी स्वार्थ वश.

क्योंकि जानती हूँ.

तुम्हारे बिना मैं हूँ ही नहीं.

पर कल ही मेरी पिछली कविता,

के जवाब में तुमने कहा.

इस धरती पर तुम्हार तुम होना,

सम्भव ही नहीं,

मेरे मैं हुए बिना.

सो अब से मैं ये उपवास रखूंगी तो सही,

पर अपनी लम्बी उम्र के लिए.

न की तुम्हारी.


(चित्र साभार गूगल के सौजन्य से)  


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