रविवार, 24 अक्तूबर 2010

तरंगें

तरंगें




पीछे घूम कर देखती हूँ.

कभी हम पास थे.

इतने, इतने, इतने,

कि सब कुछ साझा था हमारे बीच.

यहाँ तक की हमारी सांसे भी.

दूरी सा कोई शब्द न था, हमारे शब्द कोष में.

अब तुम इतने दूर हो.

कुछ अपरिहार्य कारणों से,

ऐसा तुम कहते हो.

इतने, इतने, इतने,

कि पास जैसा कोई शब्द न रहा,

अब हमारे शब्दकोष में.

कुछ अदृश्य तरंगें भेज रही हूँ तुम्हें.

महसूस कर जरा बताना,

मेरी सांसों कि गति.

पढ़ा है कहीं,

दो सच्चे प्रेम करने वालों के बीच,

होती हैं कुछ अदृश्य,

विद्दुत चुम्बकीय तरंगें,

जो बिना कुछ सुने,

मन का हाल जान लेती हैं.


(यह चित्र मेरी बेटी ने बनाया है, उसका आभार)

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

आसरा

आसरा




दूर से निहारती हूँ तुम्हें.

सुना है,

गुणों का अकूत भंडार हो तुम.

वैसे, हूँ तो मैं भी.

तुम में भी एक दोष है,

और मुझ में भी.

तुम्हारा असह्य कड़वापन,

जो शायद तुम्हारे लिए राम बाण हो

और मेरा, दुर्बल शरीर.

मुझे चाहिए,

एक सहारा सिर्फ रोशनी पाने के लिए.

सोचती हूँ फिर क्यों न तुम्हारा ही लूँ.

अवगुण कम न कर सकूँ तो क्या,

गुण बढ़ा तो लूँ.

आओ हम दोनों मिलकर

कुछ नया करें.

किसी असाध्य रोग की दवा बनें.

दूर से निहारती हूँ तुम्हें,

जानती हूँ, मैं अच्छी हूँ,

पर बहुत अच्छी बनना चाहती हूँ.

कहते हैं,

नीम पर चढ़ी हुई गुर्च बहुत अच्छी होती है.

बोलो! क्या दोगे मुझे आसरा,

अपने चौड़े विशाल छतनार वक्षस्थल पर?



ऊपर के चित्र में नीम के पेड़ से लटकती जड़ें गुर्च की हैं. गुर्च को अंग्रेजी में टिनोस्पोरा कहते हैं. नीचे का चित्र गुर्च का है. यह एक औषधीय पौधा है. इसके कुछ और नाम इस प्रकार हैं:

छिन्ना chinna, छिन्नरूहा chinnaruha, गिलोय giloy, गुड़च gudach, गुलञ्च gulancha, गुलुञ्च guluncha, गुलबेल gulbel, गुर्च gurch, जीवन्ती jivanti, जीवन्तिका jivantika, पित्ताग्नी pittagni, तिक्तपार्वण tiktaparvan, वज्रा वज्र.

(दोनों चित्र गूगल से लिए गए हैं)

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

वृत्त

वृत्त



एक वृत्त जिसकी त्रिज्या परिधि और व्यास

सतत गतिशील हैं

कभी फैल जाते हैं

अनंत दिशाओं तक

कभी सिमट कर समाहित जाते हैं

केंद्र बिंदु में

ये एक चमत्कारिक और अभिमंत्रित वृत्त है

अपने ही माथे पे एक लाल वृत्त संजोये

हमारे कहे अनकहे भय समझने की अद्भुत क्षमता

हमारे विस्थापन के साथ

पल पल घटता बढ़ता

उसका वात्सल्यमय परिधि सा आंचल

हमें पुकारती परस्पर विपरीत

दिशाओं में फैली व्यास सी बाहें

कभी अपनी बाँहों में भरने को तत्पर

कभी सामने उठी हुई समान्तर त्रिज्या सी

अर्ध वृत्त बनाते हुए भी

सम्पूर्णता की परिचायक बाहें

कभी अपने अंक में भर

सम्पूर्ण वृत्त को केन्द्रीभूत कर

सत्यापित करता अपने अस्तित्व को

मैं नत मस्तक हूँ उस प्रभु के आगे

जिसने हम सब को दिया है एक ऐसा वृत्त

जो हमसे शुरू हो हम पर ही समाप्त होता है

हाँ! मैंने हर वृत्त में एक माँ को पाया है.

चित्र गूगल से साभार

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

वारे- न्यारे

वारे- न्यारे



धरती पे हम हैं भारी

और अंबर पे बदरा कारे.

अब तो अंबर भी चल रहा है,

आतंक के सहारे!!!

लूट, हत्या और फिरौती बिन,

अब वो भी हैं बेसहारे.

वाह!!!  हमसे ही है सीखा

और हमारे ही वारे न्यारे.

तुम्हें किसने दी सुपारी ?

ये किसके हैं इशारे.

क्यों अगवा किये हैं तुमने

मेरे सूरज, चाँद, तारे?

छुपते फिरते हैं तुमसे

रश्मि, किरण, चांदनी बेचारे

विस्फोटकों से भरे घन ने

धरती पे घर उजाड़े

है क्या गुनाह उनका

क्यों बेगुनाह मारे?


शपथ

लौटा दो मेरा सूरज

तुम जो कहो वो करेंगे

फिरौती में जो तुम मांगो

तुम्हारे आगे वो धरेंगे

प्रकृति का अनादर

माँ! अब हम न करेंगे

लेंगे जो भी तुमसे

उसे वापस भी करेंगे.

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