रविवार, 15 अगस्त 2010

सफ़र


सफ़र






कुछ भी तो नहीं बदला

रस्ते पर के ठूंठ

हर ठूंठ की छाँव में सुस्ताती धूप.

पानी की एक एक बूंद को तरसती

समंदर में एक सीपी

कहीं कोठरी में सुबकता बचपन

कहीं बचपन में पनपता यौवन

कुछ भी तो नहीं बदला

देह में धधकता दावानल

बयार में घुलता गंधक

आँखों में तरता तेज़ाब

ये सिर्फ शब्द नहीं

कुछ न कह पाने की व्यथा है

कहते हैं

देश ने प्रगति की है

निर्धन निरीह और निर्बल

आज भी वहीँ हैं

आज से तिरसठ साल पहले

छोड़ आई थी जहाँ.




35 टिप्‍पणियां:

  1. स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.

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  2. आपकी कविता ने हमारी अभिव्यक्ति को बल दिया है... हमारा आभार!

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  3. स्वतंत्रता दिवस पर हार्दिक शुभकामनाये और ढेरों बधाई.

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  4. अच्छी प्रस्तुति .....

    स्वतंत्रता दिवस पर हार्दिक शुभकामनाये और बधाई

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  5. जय हिंद

    http://rimjhim2010.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html

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  6. स्वाधीनता दिवस की अनन्त शुभकामनाएं.

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  7. कुछ भी तो नहीं बदला --
    हर ठूंठ की छाँव में सुस्ताती धूप।

    वाह , एक खौफनाक सत्य को कितना खूबसूरती से प्रस्तुत किया है आपने ।
    फिर भी , स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें । ताकि हम याद कर सकें उनको , जिन्होंने कम से कम एक ग़ुलामी की ज़ंजीर से तो मुक्ति दिलाई ।

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  8. ये सिर्फ शब्द नहीं
    कुछ न कह पाने की व्यथा है .... marmik prastuti

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  9. प्रगती की दास्तान ... सच के बहुत करीब है .... स्वतंत्रता दिवस की बधाई ...

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  10. स्वतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामना.. गहरे कटाक्ष भरी आपकी रचना .. मार्मिक प्रस्तुति !

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  11. kahte hai desh ne pragati ki hai par aaj bhi vahi hain jahan tirsath saal pahle thi.
    bilkul yatharth se paripurn post. bahut hi sateek lagi.
    swatantrata- diwas par aapko hardik shubh-kamnaayen.
    poonam

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  12. एक कड़वे सच को सशक्त शब्द दिए हैं. आपसे ऐसी सशक्त रचना की ही उम्मीद होती है.

    अति सुंदर.

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  13. कहीं कोठरी में सुबकता बचपन
    कहीं बचपन में पनपता यौवन

    कुछ भी नहीं बदला ......

    या बदला है तो .....
    दिलों में दूरियाँ .........
    लूट. आतंक, हिंसा के
    कुछ नए तरीके .....
    मुहब्बत के बदलते रंग .....
    बदला है रचना जी बहुत कुछ बदला है .....

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  14. कहते हैं

    देश ने प्रगति की है

    निर्धन निरीह और निर्बल

    आज भी वहीँ हैं

    आज से तिरसठ साल पहले

    छोड़ आई थी जहाँ.
    स्वतंत्रता दिवस पर हार्दिक शुभकामनाये और ढेरों बधाई.बहुत सुन्दर .भोपाल से आज लौटी हू इस कारण नही आ पायी वक्त पर .

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  15. बहुत अच्छी रचना।


    राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की शीघ्र उन्नति के लिए आवश्यक है।

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  16. अच्छी प्रस्तुति .....

    स्वतंत्रता दिवस पर हार्दिक शुभकामनाये और बधाई.........

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  17. सुन्दर रचना !
    अपना ही लिखा एक शेर याद आ गया-

    पीटते हो ढ़ोल जाने किस तरक्की का सदा
    भूख, भय, बीमारियाँ हैं ज्यों की त्यों संसार में

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  18. Hi..

    Jo sabal the, wo safal hain...
    kal bhi the, aur aaj bhi...
    jo nibal the, wo nibal hain..
    kal bhi the, aur aaj bhi...

    Desh hai aazaad beshak...
    par hukoomat hai wohi..
    janta ko do wakt ki roti...
    bhi na hai mil rahi..

    Desh hai kahne ko unnat...
    TV, Mobile yahan...
    tan gareebi apna dhank le..
    kapde bhi paati nahin...

    Desh Khush haal hai...
    Janta kangaaal hai...
    Neta malamaal hai....
    Yahi ek sawal hai...

    Bhookh, gareebi, badhaali se Azaadi kab milegi??

    Deepak...

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  19. बेहतरीन अभिव्यक्ति...लगा जैसे मेरे अपने अहसासों को शब्द मिल गये हों।

    "हर ठूंठ की छाँव में सुस्ताती धूप" वाला बिम्ब अनूठा है।

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  20. हम्म! सोच में हूँ, क्या कहूँ?

    जवाब देंहटाएं
  21. हाँ ...नैतिक मूल्यों के अतिरिक्त ज्यादा कुछ नहीं बदला ..!

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  22. "हर ठूंठ की छाँव में सुस्ताती धूप
    ....
    ये सिर्फ शब्द नहीं
    कुछ न कह पाने की व्यथा है"

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  23. "हर ठूंठ की छाँव में सुस्ताती धूप
    ....
    ये सिर्फ शब्द नहीं
    कुछ न कह पाने की व्यथा है"

    जवाब देंहटाएं
  24. bahut hi achhi rachna....
    utkrisht soch...

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  25. कहते हैं

    देश ने प्रगति की है

    निर्धन निरीह और निर्बल

    आज भी वहीँ हैं

    आज से तिरसठ साल पहले


    Kai sawal chod jati hai aapki yah rachna. shubhkamnayen.

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  26. यही टीस तो हमारे मन में भी हर पल पलती है... मन को छूती इस सार्थक रचना के लिए आपका साधुवाद,आभार...

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  27. "कुछ भी तो नहीं बदला
    हर ठूंठ की छाँव में सुस्ताती धूप.
    पानी की एक एक बूंद को तरसती
    समंदर में एक सीपी
    ये सिर्फ शब्द नहीं
    कुछ न कह पाने की व्यथा है
    आज से तिरसठ साल पहले
    छोड़ आई थी जहाँ."
    आज भी कुछ नहीं बदलने का गम आपकी रचना में दिखता है. ठूंठ की छावं में सुस्ताती धूप का बिम्ब बिना विस्तार के सब कुछ कह जाता है. सामयिक होने के साथ-साथ यह संवेदना भरी प्रस्तुति है.

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  28. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  29. वाकई कुछ नहीं बदला ! शुभकामनायें !

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