रविवार, 27 जून 2010

भाव शून्य

"भाव शून्य"






वो बहुत खुश थी

बरसों से प्रतीक्षारत थी,

जिस ख़ुशी के लिए

वो उसे मिल जो गयी थी.

जीवन में एक पूर्णता,

एक सम्पूर्ण नारीत्व,

एक अजीब सी हलचल,

उत्साह और..

पूरी देह में सिहरन

पर न जाने क्यों,

उस सम्पूर्ण नारीत्व को देखने की चाह,

उसमें जाग उठी.

फिर क्या था,

एक कमरा तार मशीनें और

कुछ चहलकदमी.

अचानक कुछ हलचल हुई.

नेह के ताल में एक नन्ही सी जान.

गालों में गहरे गड्ढे,

एक शांत सौम्य मुस्कान.

फिर एक अंगडाई,

पांव लम्बे खिंचे,

दूर तक जाते हाँथ,

घूमता शरीर,

फिर वही शांत सौम्य मुस्कान.

उसी पल पाया उसने.

अपनी देह में, नन्हे पांवों का कोमल स्पर्श,

कोहनिओं की हड्डियों की मीठी चुभन.

खो जाना चाहती थी वो उसमें

पर हैरान थी वो !!!!

न जाने क्यों पास बैठे लोगों के चेहरे

अचानक भाव शून्य हो गए थे ...

 
 
 

रविवार, 20 जून 2010

आशीष

आशीष




मैं एक माँ हूँ ...

पर मैं तुम्हे हर माँ की तरह

ये आशीष नहीं दूंगी,

कि सूरज बनो, सूरज की तरह चमको,

छा जाओ पूरे ब्रह्माण्ड पर,

वश में कर लो पूरी धरती,

बंध जाओ एक समय सीमा में

अपितु, मैं तुम्हें आशीष दूंगी

तुम चाँद बनो, कुछ कम चमको,

यथार्थ में होते हुए भी

कभी अपनी उपस्थिति

न दर्ज करा पाने का दर्द समझो

अमावस के चाँद से

अपने पास बिखरे नन्हे सितारों से

घुलो, मिलो, उन्हें भी चमकने का अवसर दो.

दूज के चाँद की तरह,

कभी वेदना, संवेदना, प्रणय और बिछोह को

व्यक्त करने का माध्यम बनो,

कहीं किसी प्रेमी युगल को संरक्षण दो,

अपने उजाले में,

एक पूनम के चाँद की तरह

और हाँ !

कभी सूरज की पूर्ण उपस्थिति में

दिन के उजाले में,

आकाश के किसी कोने में,

सूरज से सिर्फ चंद क़दमों के फ़ासले पे,

अपने होने को प्रमाणित करो

ताकि लोग पूंछे

ये किसका चाँद है ??

जो आकाश में सूरज के सामने भी टिका है.





रविवार, 13 जून 2010

धुंआ

धुंआ





जाने कुछ अजीब सी बात है

तुममें

बुरी चीजों में भी कुछ अच्छा

सोच ही लेते हो अपने लिए

तभी तो तुमने धुंए से सीखा

ऊपर, ऊपर और ऊपर उठना

फैलना, मिलना, मशहूर होना

कभी आँखों में उतरना

फिर वो भला आंसू की तरह ही क्यों न हो

तुम्हारी रुचि तो

जलने, जलाने, धुंए और राख में है ना !!!

फिर तुमने सिगरेट को ही क्यों चुना ???

शायद तुम्हारी चाहत हो

तुम धुंआ और ऊँचाई

मैं राख और तुम्हारे एकदम पास

तुम्हारे ही क़दमों में,

पर क्यों नहीं चुना तुमने

किसी थर्मल पावर प्लांट को,

उसके कोयले को

जहाँ तुम वही धुंआ, ऊँचाई,

पर मैं, राख, नहीं!!

फ्लाई ऐश,

और पांव न...हीं

मेहनतकश लोगों के हाथों का कोमल स्पर्श

और बन सकूँ एक खुबसूरत, पर सुदृढ़ ईंट

कहीं दीवार बन, दे सकूँ अपनापन

कहीं ममता की छावं देती छत

कभी एक भरपूर घर का अहसास

ये सच है,  कि  तुम अच्छा सोच लेते हो

पर इतना अच्छा भी नहीं !!!



रविवार, 6 जून 2010

जीवाश्म

जीवाश्म



संकेत, सूत्र औ संरचना


इंगित करते हैं जिस रचना को


उसके कल अनुमान मिले हैं


गूंज रहे इस शाद्वल में


प्रणय के कुछ गान मिले हैं


पर्वत, घाटी, नदिया, झरनों पर


अपने कुछ वृत्तांत मिले हैं


हिमखंडों के भीतर बाहर


तेरे मेरे नाम मिले हैं


अपनी भंगुर सांसों की माला के,


मनके सुबहो शाम मिले हैं


हर जीवन में तुझको माँगा


पर अश्रु के अनुदान मिले हैं


मेरे नयन व्यथा से गीले


घाटी के उस पार मिले हैं


अधर सधर के बीच फंसे


मेरी सांसों के सारांश मिले हैं


जाने कितनी सदियाँ बीतीं


जाने कैसे रतियाँ बीतीं


तब जा करके तुमको, मेरी


आँखों, सांसों औ बातों के


ये सारे जीवाश्म मिले हैं


संकेत, सूत्र औ संरचना


इंगित करते हैं जिस रचना को


उसके कल जीवाश्म मिले हैं.

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