रविवार, 9 मई 2010

दरख़्त


दरख़्त




मैं बाहर से सख्त होना चाहती हूँ.

त्यज कर सारी कुटिलता,

ओढ़ कर मुख पे जटिलता,
 
आश्वस्त होना चाहती हूँ.
 
मैं एक दरख़्त होना चाहती हूँ.
 
उजड़ गए जो कुछ घरोंदे,
 
सांसों में रहते थे मेरे,
 
बिखरे हुए सारे सिरे.
 
फिर जोड़ देना चाहती हूँ.
 
बीते हुए दुःख दर्द सारे,
 
रीते हुए पल छिन हमारे,
 
निश्वासों के सहारे, 
 
पतझड़ में,
 
खो देना चाहती हूँ.
 
रेशमी धागों के नीड़,
 
उँगलियों की पोर पे,
 
फिर से सजाना चाहती हूँ.
 
मैं बसंत पाना चाहती हूँ.
 
जीवंत होना चाहती हूँ. 
 
आश्वस्त होना चाहती हूँ.
 
आसक्त होना चाहती हूँ 
 
मैं बाहर से सख्त होना चाहती हूँ.
 
हाँ, मैं एक दरख़्त होना चाहती हूँ.   
 
 
     

32 टिप्‍पणियां:

  1. मैं बाहर से सख्त होना चाहती हूँ.

    हाँ, मैं एक दरख़्त होना चाहती हूँ.

    बीते हुए पलों के दर्द भरे अहसास और सुनहरे भविष्य की आस लिए बहुत सुन्दर रचना ।

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  2. bahut hi sundar...hota hai kabhi kabhi beete anubhav hame sakht hone ko majboor karte hai...

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  3. बहुत सुंदर भाव..बढ़िया रचना शुभकामनाएँ...मातृ दिवस की हार्दिक बधाई

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  4. बहुत ही सुन्दर व लाजवाब लिखा है आपने , आपको पलही बार पढ़ने का मौका मिला , बहुत खूब ।

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  5. शायद दरख्त होना ही हमारी समस्याओं का समाधान है ..
    सुन्दर रचना ,मन को छूती हुई

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  6. उजड़ गए जो कुछ घरोंदे,
    सांसों में रहते थे मेरे,

    वाह क्या बात है ... बहुत सुन्दर !

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  7. जिंदगी की जटिलताओं से जूझते हुए आगे बढने की ख्वाहिश में दरख्त बनना.....सुन्दर भावाभिव्यक्ति

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  8. aapki bhaavpurn kavita pe yaad aayi ye ghazal-

    या खुदा रेत के सहरा को समंदर कर दे
    या छलकती हुई आँखों को भी पत्थर कर दे

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  9. मैं बाहर से सख्त होना चाहती हूँ.

    हाँ, मैं एक दरख़्त होना चाहती हूँ.
    बहुत सुन्दर रचना

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  10. Hi..

    Bahar se sakti ki chaah...
    Antar hruday prem pravah..
    Naari jeevan bhi darakht sa..
    Fal aur chhaya de athaah..

    Sundar kavita..

    DEEPAK..

    जवाब देंहटाएं
  11. बीते हुए दुःख दर्द सारे,

    रीते हुए पल छिन हमारे,

    निश्वासों के सहारे,

    पतझड़ में,

    खो देना चाहती हूँ.

    रेशमी धागों के नीड़,

    उँगलियों की पोर पे,

    फिर से सजाना चाहती हूँ.

    मैं बसंत पाना चाहती हूँ.

    जीवंत होना चाहती हूँ.

    आश्वस्त होना चाहती हूँ.

    आसक्त होना चाहती हूँ

    मैं बाहर से सख्त होना चाहती हूँ.

    हाँ, मैं एक दरख़्त होना चाहती हूँ.
    बहुत बहुत बहुत खूबसूरत रचना ,इस पावन पर्व पर ,मै अभी व्यस्त हू सफ़र मे जून से बराबर मिलती हू ,अभी रायपुर जा रही हू . इसके पहले भोपाल गई रही .

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  12. बाहर से सख्त अन्दर से कोमल ,मुख पर जटिलता ओड कर दरख्त होने की कामना,उजडे हुये घरोंदों के सिरे फिर से जोड्ने की कामना (सर्वे भवन्तु सुख:न)फ़िर से बसन्त पाना जीवन्त ,आश्वस्त और आसक्त होने की इच्छा और उसके लिये अति आवश्यक बात कि कुटिलता का त्याग करना श्रेष्ठ रचना

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  13. कम से कम ईमानदारी है इस कविता में ...अच्छा लगा ! नरम दिल के लिए शुभकामनायें !

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  14. aaj bahut si rachnao k baad apki is rachna me kuchh positive socho ki akankshaye uthi hai...aameen.

    जवाब देंहटाएं
  15. "दरख्त होना चाहती हूँ" इन्ही चार शब्दों में अपने ने पूरी जिंदगी का फलसफा बता दिया... बहुत सुंदर विम्ब संयोजन और शब्द संयोजन के साथ कविता बहुत बढ़िया बनी है... संवेदना से भरपूर...

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  16. मैं बाहर से सख्त होना चाहती हूँ.
    हाँ, मैं एक दरख़्त होना चाहती हूँ.
    अपने साथ होने वाली ज्यादतियों को रोकने के लिए बहुत जरुरी भी है - अंतर्मन की भावनाओं को उजागर करती प्रशंसनीय प्रस्तुति और "सख्त दरख़्त" की तस्वीर सोने पै सुहागा

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  17. Bahuty khoob ... Drad, sthir, sab kuch chupchaap sahna har kisi ke bas mein nahi hota ... lajawaab likha hai ...

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  18. Ek darakhta... wahar se kathor aur bheetar se komal...
    maa jaisa hi prem liye nichhal...
    aasra dene wala, man har lene wala...
    Ishwar aapki darakhta hone ki manokamna puri kare...

    जवाब देंहटाएं
  19. मैं बसंत पाना चाहती हूँ.
    जीवंत होना चाहती हूँ.
    आश्वस्त होना चाहती हूँ.
    आसक्त होना चाहती हूँ
    मैं बाहर से सख्त होना चाहती हूँ.
    हाँ, मैं एक दरख़्त होना चाहती हूँ.
    इतनी खूबसूरती से एक स्त्री के मनोभावों को व्यक्ति किया है...बहुत ही सुन्दर रचना ,

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  20. "मैं बाहर से सख्त होना चाहती हूँ.

    हाँ, मैं एक दरख़्त होना चाहती हूँ."

    रचना जी, पहली बार मै आपके ब्लोग पर आया हु , पर सच कहता हुं-आपके रचना संसार से अभिभूत हुं

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  21. bahut hi behtareen rachna..
    seedha dil mein utarne waali....
    गए जो कुछ घरोंदे, सांसों में रहते थे मेरे, बिखरे हुए सारे सिरे. फिर जोड़ देना चाहती हूँ.
    waah...
    bahut khub..
    regards...
    http://i555.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  22. pehli bar apke blog pe aya.kavitayen sarthak hain so aapko follow kar raha hun.shubhkamnayen.

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  23. बहुत ही भावपूर्ण कविता...मुझे ऐसा लगता है हम अंततः दरख्त बन ही जाते हैं...

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  24. रहती अक्सर मौन हूँ मैं,.........................
    बोलना अगर चाँदी है तो मौन रहना सोना ....आपके शब्द बहुत कुछ बोल जाते है

    जवाब देंहटाएं
  25. मैं बसंत पाना चाहती हूँ.

    जीवंत होना चाहती हूँ.

    आश्वस्त होना चाहती हूँ.

    आसक्त होना चाहती हूँ

    मैं बाहर से सख्त होना चाहती हूँ.

    हाँ, मैं एक दरख़्त होना चाहती हूँ.
    Behad khoobsoorat hai yah rachna...bahut alag,anoothi..!

    जवाब देंहटाएं
  26. मैं एक दरख़्त होना चाहती हूँ.
    उजड़ गए जो कुछ घरोंदे,
    सांसों में रहते थे मेरे,
    बिखरे हुए सारे सिरे.
    फिर जोड़ देना चाहती हूँ.

    पतझड़ में,
    खो देना चाहती हूँ.
    रेशमी धागों के नीड़,
    उँगलियों की पोर पे,
    फिर से सजाना चाहती हूँ.


    चित्र ,शब्द ,कविता और अभिव्यक्ति का अनूठापन ! समझ नहीं आ रहा किसकी तरीफ करूं ?
    मैं बसंत पाना चाहती हूँ.

    हाँ, मैं एक दरख़्त होना चाहती हूँ.

    जवाब देंहटाएं
  27. बिखरे हुए सारे सिरे.

    फिर जोड़ देना चाहती हूँ.

    bikhre aur toote huo ko jodne ki ichchha..... sukhad ki kalpana....arthmay sunder rachna....

    जवाब देंहटाएं
  28. सूक्ष्म पर बेहद प्रभावशाली कविता...सुंदर अभिव्यक्ति..प्रस्तुति के लिए आभार जी

    जवाब देंहटाएं

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