रविवार, 30 मई 2010

राहें

राहें



कभी भूल गए थे, जिन राहों को

कल, मैंने उन पर चल कर देखा

प्रेम पसारे, राहें तकते 

उनको   आज वहीँ पर देखा

मैंने कितनी धारें बदलीं, 

हर पल अपनी  राहें बदलीं

नाते-रिश्ते,  दुनियादारी,

जाने कितनी बाहें बदली

पर, आस बिछाए,  सांसें ओढ़े

उनको फिर भी जगते देखा 

आओ लौट चलें उन पर फिर

उनमें   मैंने सम्मोहन देखा

आज की इन नयी राहों पर

कहाँ   नेह  बरसते   देखा  

 कभी भूल गए थे जिन राहों को

कल मैंने उन पर चल कर देखा




रविवार, 23 मई 2010

शांति पथ

शांति पथ





बाहर हर तरफ हैं

गर्म हवा के बबंडर,

चक्रवात, तपिश, तूफ़ान

और सब कुछ मुरझाया,

सूखा उजड़ा सा.

जमीं पर पड़े सूखे बेदम,

जरा सी हवा में

घसिटते, लड़खड़ाते पत्ते.

आँधियों में

गिरे टूटे कुछ फल,

उनको ले जाने को

व्याकुल लोग.

फिर भी मैं  खुश हूँ.

भीतर नमी जो है.

ये नमी कभी मुझे

तरावट का अहसास देती है.

कभी नम सी हरारत.

कभी अपनी ही नमी में,

अपना आँचल भिगो,

साफ़ करती हूँ,

धुंधले आइने को.

खोजती हूँ कुछ

धुंधली होती तस्वीरों को.

कभी एकांत में जा,

अपनी ही नमी में नहा

शांत होती हूँ.

निखरती हूँ,

सवंरती हूँ

और साहस बटोरती हूँ.

फिर से उस

गर्म हवा के

बबंडर,

चक्रवात,

 तपिश 

और तूफ़ान

को सहने का.




मंगलवार, 18 मई 2010

लक्ष्मण रेखा

लक्ष्मण रेखा




मेरे लक्ष्मण  मस्तिष्क ने
मेरे चहुँ  ओर
खींच रखे हैं
कुछ रंगीन टेढ़े - मेढ़े से घेरे.

मेरे रावण मन की
लोलुप निगाहों ने
बार बार प्रलोभन भी दिया.

शायद, मैं 
लखन के घर की कैद
से बाहर आ भी गई होती.

पर दशानन मन के
अस्फुट संवाद
घुलने लगे कानों में.

कौन बचायेगा इन्हें
राम...................???
आज के युग की
लुप्तप्राय प्रजाति !!!

कभी मन में
राम बसा करते थे
पर अब सिर्फ मैं !!!

एक मौन अट्टहास
गुंजायमान कर गया
दसों दिशाओं  को

कंपायमान हो उठा
रोम रोम
मेरी अंतर्निहित रघुबर भावनाएं
एक बार फिर हतोत्साहित हो उठी.

सच ही तो है,
आज
भावनाओ  के लिए
जगह ही कहाँ  है...???

और सीता....!!!!
कहीं अगर कोई होगी भी वो
तो कहीं वनवास, कहीं अग्निपरीक्षा दे
राख का ढेर हो चुकी होगी.

मैं अपनी लक्ष्मण रेखाओं
के घेरे मे खुश हूँ.

मै जान चुकी हूँ
मन मस्त्षिक और भावनाओं  


की जंग मे
मस्तिष्क की रेखाओं
के पास ही है
सुरक्षाकवच.



रविवार, 9 मई 2010

दरख़्त


दरख़्त




मैं बाहर से सख्त होना चाहती हूँ.

त्यज कर सारी कुटिलता,

ओढ़ कर मुख पे जटिलता,
 
आश्वस्त होना चाहती हूँ.
 
मैं एक दरख़्त होना चाहती हूँ.
 
उजड़ गए जो कुछ घरोंदे,
 
सांसों में रहते थे मेरे,
 
बिखरे हुए सारे सिरे.
 
फिर जोड़ देना चाहती हूँ.
 
बीते हुए दुःख दर्द सारे,
 
रीते हुए पल छिन हमारे,
 
निश्वासों के सहारे, 
 
पतझड़ में,
 
खो देना चाहती हूँ.
 
रेशमी धागों के नीड़,
 
उँगलियों की पोर पे,
 
फिर से सजाना चाहती हूँ.
 
मैं बसंत पाना चाहती हूँ.
 
जीवंत होना चाहती हूँ. 
 
आश्वस्त होना चाहती हूँ.
 
आसक्त होना चाहती हूँ 
 
मैं बाहर से सख्त होना चाहती हूँ.
 
हाँ, मैं एक दरख़्त होना चाहती हूँ.   
 
 
     

रविवार, 2 मई 2010

जलकुम्भी


जलकुम्भी





सड़क के किनारे

कच्ची मिटटी में

ठहरे पानी और नमी में

फैली ऐ जलकुम्भी !

पसर जाओ, मेरी आँखों में भी.

फैलाओ  

हरियाली का छद्मावरण.

सोख लो नमी.

इसके पहले कि  इन आँखों  से,

 सीली दीवारों से झरती

 चूने की पपड़ी की तरह,

वो सब कुछ झर जाये,

जिसे बस अपने तक ही,

सीमित रखने का प्रण लिया था कभी,

और दिखने लगे 

पपड़ी झरने के बाद के,

वो बदनुमा धब्बे.

न होने दो अहसास किसी को

यहाँ भी कभी यौवन से परिपूर्ण पर्यावरण था.

जो लांछन, दोषारोपण और छिद्रान्वेषण

के प्रदूषण के चलते.

सूख कर,

खारे पानी की,

चंद बूंदों में सिमट कर रह गया है.



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