रविवार, 21 फ़रवरी 2010

अपने

अपने

अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं

अपनों की पदचापों को पहचाना करती, मैं

अपनों की दस्तक से पहले उनका नाम बताती, मैं

अपनों की ही छाया से आच्छादित होती, मैं

फिर भी अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं

अपनों की हर बात से आशान्वित होती, मैं

अपनों की उपलब्धि पर आल्हादित होती, मैं

अपनों को जब ठेस लगे तब विव्हल होती, मैं

अपनों की हर बात का अनुमोदन करती, मैं

फिर भी अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं

अपनों से भी अपनेपन की आस लगाती, मैं

अपनों के बेगानेपन से यूँ तो अंजान नहीं थी, मैं

अपनों ने जब रिश्ता तोड़ा तो हैरान हुई थी, मैं

अपने ही घर में इक त्यक्ता सामान हुई थी, मैं

इतने बरसों बाद सही पर जान गई थी, मैं

क्यों, अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं




26 टिप्‍पणियां:

  1. अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं...बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

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  2. अपनों की ही छाया से आच्छादित होती, मैं

    फिर भी अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं

    अपनों की हर बात का अनुमोदन करती, मैं
    फिर भी अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं
    bahut kuch gahara kah gayee aapkee rachana......
    bahut sunder prastuti

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  3. अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं और इस कारन मैं खुद को पूरा कभी न ढूंढ़ पाई..

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  4. इतने बरसों बाद सही पर जान गई थी, मैं

    क्यों, अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं
    बहुत गहरे भाव हैं जब आदमी किसी अपने से दूर जाता है तभी वो खुद मे लौटता है। बहुत अच्छी कविता। शुभकामनायें

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  5. rachna ji bahut acchhi abhivyakti aur nirmala ji ne bahut goodh baat kahi hai..me bhi is baat ka samarthan deti hu.

    जवाब देंहटाएं
  6. अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं...बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  7. इतने बरसों बाद सही पर जान गई थी, मैं
    क्यों, अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं

    इंसान अपनो में ही तो ढूंढता है अपने आप को .... फिर खुद को पहचान ले तो जीवन सुखी हो जाता है ... बहुत अच्छे भावों से रचा है इस रचना को ....

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  8. अपनों से भी अपनेपन की आस लगाती, मैं

    अपनों के बेगानेपन से यूँ तो अंजान नहीं थी, मैं
    बहुत सुन्दर कविता. बधाई.

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  9. अपनों ने जब रिश्ता तोड़ा तो हैरान हुई थी, मैं
    अपने ही घर में इक त्यक्ता सामान हुई थी, मैं

    बहुत सुन्दर तरीके से मनोभावों को शब्दों में उतारा है।

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  10. अपनों ने जब रिश्ता तोड़ा तो हैरान हुई थी, मैं


    अपने ही घर में इक त्यक्ता सामान हुई थी, मैं


    इतने बरसों बाद सही पर जान गई थी, मैं


    क्यों, अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं


    mann ki tees ko bahut khoobsurati se bayaan kiya hai...samvedansheel rachna...

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  11. इतने बरसों बाद सही पर जान गई थी, मैं
    क्यों, अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं

    -बेहतरीन भावाव्यक्ति!

    बधाई.

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  12. 'फिर भी अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं
    अपनों से भी अपनेपन की आस लगाती, मैं .....

    --कितनी सरलता से गहरी बातें कह दी हैं आप ने इस कविता में.सुन्दर रचना!
    -मन को छू गयी.

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  13. अपनों से भी अपनेपन की आस लगाती, मैं
    अपनों के बेगानेपन से यूँ तो अंजान नहीं थी, मैं
    अपनों ने जब रिश्ता तोड़ा तो हैरान हुई थी, मैं
    अपने ही घर में इक त्यक्ता सामान हुई थी, मैं
    इतने बरसों बाद सही पर जान गई थी, मैं
    क्यों, अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं
    bahut hi achchhi rachna ,apno ko jab anjana paate hai tab baate yahi khatkati hai .galib ki kuchh panktiyaan yaad aa rahi hai -----
    phir usi wewafa marte hai ,
    phir wahi jindagi hamaari hai .
    apno se hi haarta hai insaan aur jeet bhi unhi ke saath me hai .

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  14. बहुत ही सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने शानदार रचना लिखा है! बधाई!

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  15. बहुत सुन्दर रचना!
    रचना जी को नमस्कार!
    रवीन्द्र जी को प्रणाम!

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  16. यह खोज बहुत दुखदायी है
    यह खोज बहुत स्थायी है
    इस खोज का हासिल विह्वलता
    यह खोज प्यास की जायी है।

    आपकी रचना में वह बेचैनी और उत्कट सृजन तृष्णा है जो अनायास आपके चयनित चित्रों में और अधिक व्याकुलता के साथ प्रस्तुत होती है।
    क्या यह स्त्री सुलभ है या सृजन का स्वाभाविक अंग है. मुझे लगता है दूसरा विकल्प ही सही है।
    रचनात्मकता के लिए बधाइयां

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  17. Rachna ji aapki rachna mein bhaavo ko jis tarah vyakt kiya hai...wakai kabile tareef hai....kyonki is bhaav ko vyakt karna kavita ke madhyam se thoda kathin hai....arey han Dr. RAm kumar ka comment bahut achcha hai

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  18. इतने बरसों बाद सही पर जान गई थी, मैं
    क्यों, अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं
    .... प्रभावशाली रचना, बधाई !!!!!

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  19. "इतने बरसों बाद सही पर जान गई थी, मैं
    क्यों, अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं"
    आज के समय में भी इंसानियत को जिन्दा रखने का जज्वा रखने वालों के दर्द का पिटारा - सोच और आपको सादर नमन

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  20. इतने बरसों बाद सही पर जान गई थी, मैं
    क्यों, अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं

    ...दरअसल ये जो रिश्ते हैं समुन्द्र में तैरते काठ के सामान हैं..लहरों के संयोग से पलभर के लिए मिलते और फिर अनंत में खो जाते हैं.
    ..यूँ तो कोई नहीं अपना
    ..यूँ तो सभी अपने हैं.
    .आपकी कविता ने भावुक बना दिया..!

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  21. इतने बरसों बाद सही पर जानगई थी, मैं
    क्यों, अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं!!!
    हाँ हम सभी तो यही करते हैं
    मनुष्य क्या जान पाया है समाज को ,बूंद क्या समझ सकती है समुद्र को! वैसे ही
    रचना ! हम जीवन में अपनों के तलाश की यात्रा करते हैं !
    होली की असंख्य शुभ कामनाये !!!

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  22. अपनों से जब बेगाना पन मिलता है तो चोट तो लगती ही है ।
    इतने बरसों बाद सही पर जान गई थी, मैं

    क्यों, अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं
    बेहद भावपूर्ण ।

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  23. आपको और आपके परिवार को होली की बहुत बहुत शुभ-कामनाएँ ...

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