रविवार, 28 फ़रवरी 2010

आतंक के साए

आतंक के साए




क्या रंग देखो क्या रंगों का त्यौहार

हर तरफ फैला है अन्धकार

अब न वो रंग, न फागुन की ठिठोली

हर तरफ है तो बस लाल रंग की होली

क्यों वो माँ गाए, क्यों वो बहन गुनगुनाये

क्यों पत्नी माथे पे, अबीर सजाये

जब रंग गया हो, सदा के लिए

लहू की होली में अपना ही चिराग़

क्यों नहीं दीखता अब अबीर में,

वो अबरक का चमकना

क्यों भूल जाता हैं चाँद,

होली की रात, कुछ घरों में निकलना

क्या तलेंगीं गुझिया, पकवान,  वो ऑंखें,

लहू के कड़ाहे में,

जो जी रहे आज भी, आतंक के साए में

दूर तक दीखता है क्यों हर रंग

स्याह सफ़ेद और सुर्ख़

क्यूँ रूठ गए वो हमसे

इन्द्रधनुषी रंग, वो सुरमयी हवाएं,

क्यूँ अब फाग नज़र नहीं आती

उन्हीं को देखने को हमने

अपनी आँखों पे रंगीन चश्मे लगा रखे हैं

 
 

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

अपने

अपने

अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं

अपनों की पदचापों को पहचाना करती, मैं

अपनों की दस्तक से पहले उनका नाम बताती, मैं

अपनों की ही छाया से आच्छादित होती, मैं

फिर भी अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं

अपनों की हर बात से आशान्वित होती, मैं

अपनों की उपलब्धि पर आल्हादित होती, मैं

अपनों को जब ठेस लगे तब विव्हल होती, मैं

अपनों की हर बात का अनुमोदन करती, मैं

फिर भी अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं

अपनों से भी अपनेपन की आस लगाती, मैं

अपनों के बेगानेपन से यूँ तो अंजान नहीं थी, मैं

अपनों ने जब रिश्ता तोड़ा तो हैरान हुई थी, मैं

अपने ही घर में इक त्यक्ता सामान हुई थी, मैं

इतने बरसों बाद सही पर जान गई थी, मैं

क्यों, अपनों में ही अपनों को ढूंढा करती थी, मैं




रविवार, 14 फ़रवरी 2010

इंसान

इंसान



कहते हैं लोग

इन्सान पत्थर हो गया

अगर ये सच है तो

दिखा दे अपनी सख्ती,

अपना खुरदरा, पथरीला, कंकरीलापन

अपनी जड़ता,

जा, छू जा, कभी किसी राम के चरणों से

दे दे किसी अहिल्या को जीवन दान

बन राम सेतु,

जीत ले लंका, मार गिरा कभी रावण,

बचा ले, अबला सीताओं की लाज,

बन पारस, कभी निर्धनता के लिए,

डट जा, चीन की दीवार बन, साम्प्रदायिकता के आगे

पीस दे आपने दो पाटों के बीच महंगाई कभी

गिर, भर भरा के, बिना सीमेंट की छत की तरह,

कर दे लहू लुहान भ्रष्टता को कभी,

जा गिर, मर और मार

एक उल्का पिंड की तरह निकृष्टता  को कभी

समा जा किसी देश द्रोही की आँखों, में किरकिरी बन

चुनवा दे अपनी दीवार में,

अनारकली की जगह, आतंकवाद कभी

पर अफ़सोस, ऐ इंसान

तू तो पूरा पत्थर भी न हुआ.




रविवार, 7 फ़रवरी 2010

हिंदी की व्यथा

हिंदी की व्यथा




संवेदना की परागरज ले


ककहरे ने गर्भ धरा था


शब्दों के भ्रूण पनपे


तो,


भाषा ने खोला नयन था


आशा की ओढ़ चुनरी


हिंदी का हुआ आगमन था


हास,


परिहास,


कथा,


कविता,


लोरी से भरा बचपन था


बन गई


उपन्यास,


ग़ज़ल,


रुबाई

आ गया भरपूर यौवन था


आंचल में भर के सोलह कलाएं,


छा गया

अल्हड़पन,

लड़कपन,

बांकपन था


भाषा की सभी विधाओं से पूर्ण उसका जीवन था


पर जबसे किया उसने अंग्रेजी का वरण था


हो गया शुरू उसका चरित्र हनन था


दिल बदले,

दौर बदले,

गया बदल उसका आचरण था


खो गया उसका मीठापन था


एक वाक्य भी अंग्रेजी बिना चल न सकी वो


आ गया जीवन में खोखलापन था


बिगड़ने लगा उसका संतुलन था


सो कम हो गया उसका चलन था


क्योंकि अंगरेजी की बैसाखियों पे

टंगा उसका लूलापन था

क्यों भूल गयी मैं, आप, हम सब


क्यों किया उसपर इतना दोषारोपण था


जिसने इतनी खूबसूरती से

खोला इस दुनिया में नयन था

उसे उपहार में हमने ही तो दिया

ये अपाहिजपन था.


तस्वीर मेरी बेटी शाश्वती ने बनाई है
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