शनिवार, 21 नवंबर 2009

हमसफ़र

हमसफ़र




सुबहो शाम इस धूप को बदलते देखा है


इसी धूप में सायों को छोटा और बड़ा होते देखा है


एक ही दिन में कितने मिजाज़ बदलते देखा है


कभी साए को हमसफ़र के साथ तो कभी


हमसफ़र को साए से लिपटते देखा है


सब तो कहते हैं की बुरे वक्त में


साए को साथ छोड़ते देखा है

हमने तो बुरे वक्त में सिर्फ साया ही देखा है

लोग तो रिश्तों के टूटने की बात करते हैं


हमने तो टूटते रिश्तों का ग़म भी देखा है

सुबहो शाम इस धूप को बदलते देखा है



7 टिप्‍पणियां:

  1. भावों को और
    मंजी भाषा देने की
    जरूरत है ...

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  2. मैने एक नये रचना कार को ब्लोग पर उभरते देखा है। बहुत बहुत शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  3. रचना जी, आपकी कविताओं में निखार आता जा रहा है। बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  4. भाव प्रधानता आपकी रचनाओं की विशेषता है. शिल्प तथा प्रवाह क्रमशः सध रहा है.

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  5. पहली बार आ पाया हूँ आपके ब्लॉग पर. पूर्णतः सहमत हूँ आपके विचारों से.

    rachna ji aapko namaskar

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  6. आपके लेखन ने इसे जानदार और शानदार बना दिया है....

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